यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख Modi government bans all expressions of solidarity with Palestine in Indian-held Kashmir का है, जो मूलतः 30 November 2023 को प्रकाशित हुआ था I
भारत की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली, घोर-दक्षिणपंथी सरकार, जोकि अमेरिका के पाले में जा खड़ी हुई है, वह खुलेआम भारत प्रशासित कश्मीर में, ग़ज़ा की फ़लस्तीनी जनता के लिए समर्थन में होने वाले किसी भी विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए हिंसा और धमकी का इस्तेमाल कर रही है.
भारत का एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य भारत के कब्ज़े वाला कश्मीर, दशकों से 50 लाख सैनिकों के छाए में बर्बर सरकारी दमन का शिकार कर रहा है. मोदी सरकार ने ग़ैरक़ानूनी रूप से इसके अर्द्ध स्वायत्त दर्जे को ख़त्म कर दिया और इसे केंद्र सरकार नियंत्रित केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया है.
ग़ज़ा की फ़लस्तीनी जनता पर इज़रायल के सात सप्ताह लंबे चले जनसंहार के पूरे दौरान, मोदी और उनकी हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने नेतन्याहू के शासन और इज़राइली सेना के प्रति अपने कट्टर समर्थन को प्रदर्शित करने की सारी हदें पार कर दीं. यहां तक कि इसने संयुक्त राष्ट्र महासभा में युद्धविराम के ख़िलाफ़ मतदान में साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ हाथ मिला लिया.
इस बीच, भारत में फ़लस्तीन समर्थक विरोध प्रदर्शनों पर बार-बार हिंसक पुलिस हमले हुए और भाजपा प्रवक्ताओं और उनके फासीवादी हिंदुत्व (हिंदू राष्ट्रवादी) सहयोगियों ने उन्हें बदनाम करने की भरपूर कोशिश की.
हालाँकि, भारत के कब्ज़े वाले कश्मीर में यह दमन गुणात्मक रूप से अलग रहा है. साम्राज्यवाद की शह पर हो रहे जनसंहारक हमले के विरोध की सभी अभिव्यक्तियाँ, प्रदर्शन, मीटिंगें और मार्च पर पाबंदी लागू है. इस पूर्ण प्रतिबंध को धार्मिक आयोजनों तक बढ़ा दिया गया है और सरकार ने एक आदेश जारी कर श्रीनगर की ऐतिहासिक मस्जिद में जुमे की नामज को रोक दिया. उसे डर था कि इस दौरान फ़लस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन हो सकता है. पिछले महीने एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, अन्य जगहों पर भी सरकारी अधिकारियों ने निजी तौर पर कश्मीर के इमामों (शुक्रवार की नमाज पढ़ाने वालों) को चेतावनी दी कि वे अपनी तक़रीरों में ग़ज़ा में फ़लस्तीनियों के जनसंहार का कोई ज़िक्र न करें.
जैसा कि वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट ने पहले ही विस्तार से बताया था कि भारत सरकार और इसका शासक वर्ग का फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ युद्ध बरपा रहे इज़राइल के साथ खड़ा होना, असल में अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ उनके प्रतिक्रियावादी 'वैश्विक रणनीतिक' गठजोड़ का नतीजा है. अब एक दशक पुरानी इस मोदी सरकार के तहत भारत, चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन की सामरिक घेरेबंदी में अमेरिका की अग्रिम चौकी में तब्दील हो चुका है. भारत ने अमेरिकी सेना के लिए तेल भरने और मरम्मत आदि के इस्तेमाल के लिए अपने सैन्य अड्डों और बंदरगाहों को खोल दिया है, और अमेरिका और उसके एशिया-प्रशांत संधि के प्रमुख सहयोगियों, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अपने द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय और चतुष्कोणीय सैन्य रिश्तों को और गहरा किया है. अगस्त में, मोदी सरकार ने बताया था कि वॉशिंगटन के अनुरोध पर उसने भारत की सेना को यह तय करने का निर्देश दिया था कि अमेरिका-चीन युद्ध छिड़ने की हालत में नई दिल्ली पेंटागन को क्या क्या मदद करेगी.
वॉशिंगटन के साथ चीन विरोधी यु्द्ध गठजोड़ के तौर पर भारत ने पश्चिम एशिया में वॉशिंगटन के साथ और अधिक निकटता से सहयोग करना शुरू कर दिया है, जिसमें आई2-यू2 यानी भारत-इज़राइल-संयुक्त अरब अमीरात-अमेरिका गठबंधन भी शामिल है.
सबसे भयानक अपराधों को अंजाम देने में अगुवा की भूमिका निभाने वाले अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ सहयोग करने की बेताबी के तहत ही मोदी सरकार ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन का बाहें फैलाकर स्वागत किया. जबकि ये दोनों ही इजराइल की ओर से चलाए जा रहे जनसंहार में वॉशिंगटन के पूर्ण सैन्य, राजनयिक और आर्थिक समर्थन के प्रमुख रणनीतिकारों में शामिल हैं. ये दोनों भारत में 9-10 नवंबर को अपने भारतीय समकक्षों के साथ द्विपक्षीय मीटिंग के लिए गए थे.
भारत लंबे समय तक विश्व मंच पर खुद को फ़लस्तीनी जनता के अगुवा समर्थक के रूप में पेश करता रहा है. नवंबर 1947 में इसने फ़लस्तीन को अरब और यहूदी राज्य में बांटने की योजना (संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 181) के विरोध में वोट किया और पीएलओ (फ़लस्तीनी मुक्ति संगठन) को मान्यता देने वाला पहला गैर अरब देश था.
मोदी सरकार द्वारा भारत के इस पुराने स्टैंड से पीछे हटने के दो प्रमुख कारण हैं. पहला, नई दिल्ली ने इसराइल के साथ घनिष्ठ मिलिटरी और सुरक्षा संबंध बनाए हैं, दूसरा, बीजेपी और इसके हिंदू वर्चस्ववादी सहयोगियों की यहूदीवादी सरकार के साथ राजनीतिक और विचारधारात्मक क़रीबी, जिसमें उनकी एक समान धार्मिक विशेषता, मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक जैसी नफ़रत, हिंसा और अपराध की सहज प्रवृत्ति.
ग़ज़ा के ख़िलाफ़ 17 साल लंबे चले इसराइली घेरेबंदी और वेस्ट बैंक में 'आतंकवादियों' की तरह फ़लस्तीनी जनता की ज़मीनों की लूट और दमन के ख़िलाफ़ 7 अक्टूबर को हुए जनउभार कि निंदा करने में नेतन्याहू के सुर में सुर मिलाने वाले वैश्विक नेताओं में मोदी भी थे. तीन दिन बाद मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर ऐलान किया कि 'भारत के लोग इस मुश्किल घड़ी में इसराइल के साथ खड़े हैं. भारत आतंकवाद के सभी रूपों और घटनाओं की कड़े और स्पष्ट शब्दों में निंदा करता है.'
फ़लस्तीनी जनता की घेरेबंदी, अंधाधुन बमबारी और कत्लेआम की यहूदी सरकार की कार्रवाई के साथ 'दृढ़ता से खड़े भारत के लोगों' के दावे से बिल्कुल उलट, भारत के मज़दूरों और मेहनतकश जनता के बीच फ़लस्तीनी संघर्ष के लिए बहुत गहरे तौर पर सहानुभूति और समर्थन है.
कश्मीर के संदर्भ में यह ख़ासकर सच है, जहां 1.3 करोड़ लोग दशकों से सैन्य शासन के बूटों तले रह रहे हैं और उनकी सांसों पर पांच लाख भारतीय सैनिकों का पहरा है.
जब 1987 में भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर राज्य के विधानसभा चुनावों में बहुत भोंड़े ढंग से धांधली की और सामूहिक प्रदर्शनों का बहुत बर्बरता से दमन किया तो वहां हथियाबंद उग्रवाद पनपा. नई दिल्ली ने अपने कट्टर दुश्मन पाकिस्तान पर उग्रवाद के इस्लामी धड़ों को समर्थन देने का आरोप लगा कर पूरे कश्मीर को सैन्य छावनी में बदल दिया.
बीते तीन दशकों से भारतीय सेना ने बड़े पैमाने पर पूरी आबादी में डर पैदा करने के लिए गैर न्यायिक हत्याएं, टॉर्चर, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों को अंजाम दिया और भारतीय शासन को चुनौती देने की हिम्मत करने वाले कश्मीरियों का दमन किया. इनमें अधिकांश पीड़ितों में वे पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं, जिन्होंने भारत सरकार की आपराधिकता को उजागर किया.
जम्मू एंड कश्मीर कोलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी के अनुसार, भारतीय सुरक्षाबलों द्वारा कम से कम 70,000 कश्मीरी मारे गए और 8,000 से अधिक 'ग़ायब' कर दिए गए हैं.
अगस्त 2019 में नई चुनी गई मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को ख़त्म करके लंबे समय से हिंदू हितों की महात्वाकांक्षा को पूरा किया, जोकि डंके की चोट पर एक गैरसंवैधानिक कदम था और यही नहीं, चुनी हुई राज्य सरकार को भंग कर दिया. भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र अब हमेशा के लिए केंद्र सरकार के शासन के तहत हो गया है.
अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के समय न्यूयॉर्क के काउंसल जनरल ने भारत प्रशासित कश्मीर में 'प्रशासन का इसराइली मॉडल' यानी 'बेलगाम बर्बरता' लागू करने का आह्वान किया था.
मोदी सरकार ने लगातार यही किया है, जिसमें सामूहिक सज़ा थोपना और सेना को और खुला छोड़ना शामिल है. और यह सिर्फ कश्मीर में नहीं है. बीजेपी शासित राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश में, जहां उठाईगीर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का शासन है, और हरियाणा में मुस्लिमों को डराने के लिए उनके घरों और उनकी संपत्तियों पर बड़े पैमाने पर बुलडोज़र का इस्तेमाल किया जाता रहा है.
मोदी सरकार की बर्बर और तानाशाही प्रवृत्ति इस सप्ताह फिर से तब दिखी जब वर्ल्ड पर क्रिकेट मैच के फ़ाइनल में भारत पर ऑस्ट्रेलिया की जीत का जश्न मनाने पर एक कश्मीरी विश्वविद्यालय के सात छात्रों को आतंकवाद के आरोपों में गिरफ़्तार कर लिया गया. किसी को भी गिरफ़्तार करने वाले ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून (यूएपीए) के तहत इन छात्रों को बिना आरोपों के असीमित समय तक कैद रखा जा सकता है.
फ़लस्तीनी जनता के प्रति कश्मीर में किसी भी तरह की सहानुभूति वाले प्रदर्शन पर मोदी सरकार की तानाशाही पाबंदी स्पष्ट तौर पर संविधान प्रदत्त बुनियादी अधिकारों का शर्मनाक उल्लंघन है. लेकिन भाजपा सरकार के एक के बाद एक अलोकतांत्रिक कारनामों और सांप्रदायिक उकसावे का समर्थन करने वाला भारत का सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह चुप्पी साधे है. बीजेपी के इन कारनामों में है- कश्मर के ख़िलाफ़ 2019 में संवैधानिक तख़्तापलट और ढहा दी गई बाबरी मस्जिद की जगह सरकार द्वारा हिंदू मंदिर बनाया जाना.
मोदी सरकार ने बड़ी मेहनत से यहूदी सरकार के साथ अपने क़रीबी रिश्ते बनाए हैं. जुलाई 2017 में मोदी इज़राइल के सरकारी दौरे पर जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. नेतन्याहू ने इस हिंदू वर्चस्ववादी के लिए लाल कालीन बिछा दी, जिसने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते 2002 में मुस्लिम विरोधी जनसंहार को उकसाया और उसमें मदद की. मोदी ने भारत और इज़राइल के बीच बढ़ते संबंधों को 'ईश्वर द्वारा बनाई गई जोड़ी' क़रार दिया था. बाद में मोदी और नेतन्याहू ने इस रिश्ते को 'सामरिक साझेदारी' की ऊंचाई तक पहुंचा दिया.
मोदी के सत्ता में आने के एक साल बाद, 2015 से ही इसराइल के 40% से अधिक हथियार निर्यात का नया ठिकाना भारत हो गया. दोनों सरकारें आतंकवाद से लड़ने और साइबर सिक्युरिटी को लेकर अपने सहयोग को नई ऊंचाई तक ले गईं. साइबर सिक्युरिटी का मतलब है मोदी सरकार द्वारा उन लोगों की व्यापक जासूसी, जो हिंदू वर्चस्ववादी नीतियों के ख़िलाफ़ हैं. इसने राजनीतिक कार्यकर्ताओं, विपक्षी नेताओं और पत्रकारों पर नज़र रखने के लिए इसराइल में बने पेगासस जासूसी सॉफ़्टवेयर को उनके फ़ोन में डाल दिया.
इसराइली जनसंहार के समर्थन में मोदी सरकार के खुलेआम समर्थन ने उन हिंदू कट्टरपंथी ग्रुपों को लामबंद कर दिया, जिनका इस्तेमाल मुस्लिमों, इसाईयों और अन्य अल्पसंख्यकों को डराने धमकाने के लिए और ग़रीब जनता में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने के लिए भाजपा करती है. इन ग्रुपों के सदस्य फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर ऑनलाइन प्रोपेगैंडा फ़ैलाने में सबसे आगे हैं. भारत में इसराइली राजदूत नाओर गिलोन ने पुष्टि की है कि इन ग्रुपों के कुछ सदस्यों ने इसराइल की ओर से स्वेच्छा से लड़ने की भी पेशकश की है.
अल जज़ीरा को दिए एक साक्षात्कार में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद ने कहा कि बीजेपी से जुड़े फासीवादी हिंदू कट्टरपंथी ग्रुपों की ओर से इज़राइल के लिए उत्साहजनक समर्थन को देखकर उन्हें हैरानी नहीं हुई. 1930 के दशक के अंतिम सालों में न्यूरेमबर्ग क़ानूनों और क्रिस्टालनाश्ट जनसंहार के बाद अखिल भारतीय हिंदू महासभा के प्रमुख विचारक वीडी सावरकर ने इसकी वकालत की थी कि हिंदुओं को उसी तरह मुस्लिमों के साथ पेश आना चाहिए जैसा एडोल्फ़ हिटलर की नाज़ी सरकार ने यहूदियों के साथ किया था. बीजेपी की जड़ें उसी हिंदू महासभा से जुड़ती हैं.