यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है Protests by West Bengal junior doctors over rape and killing of colleague continues after state passes reactionary death penalty legislation जो मूलतः24 September 2024 को प्रकाशित हुआ थाI
लगभग एक महीने से ज़्यादा हो गया है और पश्चिम बंगाल के सरकारी अस्पतालों में तैनात ट्रेनी डॉक्टर 'काम छोड़कर' प्रदर्शन कर रहे हैं और इसने स्वास्थ्य तंत्र को पंगु कर दिया है। 31 साल की ट्रेनी डॉक्टर मौमिता देबनाथ की बलात्कार और हत्या कर दी गई थी और 9 अगस्त को अर्द्ध नग्न और विकृत हालत में उसका शव बरामद हुआ था, इसके बाद से डॉक्टर 'इंसाफ़' की मांग कर रहे हैं।
आठ अगस्त की रात कोलकता के सरकारी आरजी कर हॉस्पीटल में 36 घंटे लंबी शिफ़्ट में काम करने के बाद थकी मांदी मौमिता थोड़ी नींद लेने के लिए सेमिनार हाल में गई थी। उसे मजबूरी में वहां जाना पड़ा क्योंकि राज्य सरकार जूनियर डॉक्टरों के आराम के लिए बिस्तर और टॉयलेट का इंतज़ाम करने में फ़ेल रही, बावजूद कि इन डॉक्टरों से रात दिन काम करने की उम्मीद की जाती है। अगली सुबह 9 अगस्त को पीड़िता का शव बहुत बुरी स्थिति में क्षत विक्षत पाया गया।
कोलकाता पुलिस ने प्रमुख संदिग्ध संजय रॉय नाम के व्यक्ति को गिरफ़्तार किया। उसे कोलकाता पुलिस द्वारा एक 'सिविल वॉलंटियर' के रूप में वहां तैनात किया गया था। वह अस्पताल में बेरोक टोक आता जाता था और अस्पताल में वो खुलेआम कहीं भी आ जा सकता था और लोगों को डांटने डपटने की उसे खुली छूट मिली हुई थी क्योंकि वो पुलिस बल का हिस्सा था।
ट्रेनी डॉक्टरों को जूनियर डॉक्टर भी कहा जाता है, उनकी मुख्य मांग, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो ममता बनर्जी से एक मुलाक़ात रही है। हालांकि यह मीटिंग 16 सितम्बर, सोमवार को हुई और 30 डॉक्टरों का प्रतिनिधिमंडल बनर्जी के आवास पर बात करने और अपनी मुख्य 'तात्कालिक मांगों' को रखने गया था।
ये सभी मांगें मौमिता के बलात्कार और क़त्ल की जांच पर कम फ़ोकस थीं और अधिकांश बातें इसके ईर्द गिर्द रहीं कि अस्पताल में पुलिस की तैनाती बढ़ाकर डॉक्टरों की 'सुरक्षा' को और चाकचौबंद किया जाए और अस्पताल में 'सुरक्षित माहौल' बनाया जाए।
इन मांगों में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर विनीत गोयल को तुरंत बर्खास्त करने की मांग भी शामिल थी, जिन पर आरोप था कि मौमिता का शव बरामद किए जाने के तुरंत बाद एक बड़ी भीड़ को सेमिनार हॉल में जाने की इजाज़त देकर उन्होंने जांच को भटकाने की कोशिश की थी। इसके अलावा अस्पताल में सुरक्षित माहौल मुहैया करने में असफल स्वास्थ्य विभाग के शीर्ष अधिकारियों को भी बर्ख़ास्त करने की मांग की गई।
जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल की शुरुआत में कई मांगे की गईं और कई मुद्दे उठाए गए। यह हड़ताल अगस्त के मध्य में चरम पर पहुंच गई और पूरे देश में फैल गई और लाखों इंटर्न और नर्सों ने सड़कों पर उतर कर विरोध प्रदर्शन किया। इन मांगों में उन भयानक भयानक हालात का भी ज़िक्र है जिसमें ट्रेनी डॉक्टरों को रहने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके अलावा, इनमें सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की बिगड़ती हालत और कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र अस्पतालों में स्वास्थ्य और सुरक्षा और काम के हालात में सुधार के अपने वायदे में केंद्र सरकार की नाकामी के भी मुद्दे उठाए गए।
हालांकि, इन गंभीर मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और सबसे संकीर्ण और प्रतिक्रियावादी क़ानून व्यवस्था की मांगों पर अधिक से अधिक ज़ोर बढ़ा दिया गया।
बेशक मौमिता के साथ हुए बर्ताव ने पश्चिम बंगाल और देश भर में लाखों लोगों के अंदर आक्रोश भर दिया था और मृतक महिला के लिए 'इंसाफ' की मांग, सरकार और पुलिसिया भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आम लोगों के ग़ुस्से में जाकर मिल गई थी।
लेकिन, जैसा कि विभिन्न स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों और उनकी ट्रेड यूनियनों की आपराधिक भूमिका के चलते मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से दबा दिया गया है, हर दूसरे जटिल सामाजिक मुद्दों की तरह इसमें भी राजनीतिक बहस की शर्तें को सबसे प्रतिक्रियावादी ताक़तों ने जल्द ही अपने हाथ में ले लिया।
हफ़्तों तक बनर्जी, उनकी टीएमसी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू बर्चस्ववादी पार्टी बीजेपी सार्वजनिक रूप से इस बात पर तूतू मैंमैं में शामिल हो गईं, कि मौमिता के साथ हुए इस भयानक हादसे के लिए कौन ज़िम्मेदार है।
पहले तो बनर्जी ने ट्रेनी डॉक्टरों से मिलने से इनकार कर दिया, और स्वास्थ्य महकमे की ज़िम्मेदारियों से उनके 'अवैध' रूप से पीछे हटने को लेकर ग़ुस्से को हवा दी। लेकिन जब उन्हें लगा कि जनता में डॉक्टरों के प्रति सहानुभूति है, उन्होंने अंततः कोलकाता पुलिस कमिश्नर और स्वास्थ्य विभाग के कई अधिकारियों को हटा दिया।
बनर्जी की टीएमसी और बीजेपी, अब बलात्कार को रोकने के लिए सरकारी हिंसा के और कड़े तरीक़ों लागू करने की वक़ालत में एक दूसरे से होड़ लगा रहे हैं।
मौमिता की मौत के तुरंत बाद ही बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखते हुए, एक ऐसा 'कड़ा केंद्रीय क़ानून' बनाए जाने की मांग की जिसमें 'जल्द इंसाफ़ सुनिश्चित' करने के लिए 15 दिनों के अंदर ही बलात्कारी को फांसी की सज़ा दी जाए।
इसके जवाब में मोदी सरकार ने बनर्जी पर हमला किया कि राज्य में 48,600 बलात्कार के लंबित मामलों के बावजूद राज्य सरकार, 2018 के केंद्र सरकार के आदेश में मंज़ूर किए गए, यौन हिंसा के अपराधों के लिए 11 फ़ास्ट ट्रैक कोर्टों को शुरू करने में नाकाम रही।
फिर भी, अपराध पर कठोर क़ानून बनाने के लिए, तीन सितम्बर को पश्चिम बंगाल के विधानसभा में पेश किए गए अपराजिता वुमन एंड चाइल्ड (वेस्ट बंगाल क्रिमिनल लॉज़ अमेंडमेंट) बिल, 2024 को लेकर दोनों पार्टियां ध्वनिमत में एक साथ आ गईं।
यह ध्यान देने की बात है कि सीपीएम (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया) की अगुवाई वाले स्टालिनवादी लेफ़्ट फ़्रंट गठबंधन इस मतविभाजन में शामिल भी नहीं हो पाया क्योंकि 2019 से ही पश्चिम बंगाल में इसके एक भी चुने हुए विधायक नहीं हैं, जबकि यह 1977 से 2011 तक लगातार 34 सालों तक पश्चिम बंगाल की सरकार में रहा है। यह स्टालिनवादियों की 'निवेश परस्त' नीति रही है जिसने कम्युनिस्ट विरोधी बड़बोली बनर्जी को सत्ता में पहुंचने और इसके बाद राज्य में एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी के उभार के लिए दरवाज़े खोले।
नए 'बलात्कार विरोधी' क़ानून में प्रावधान किया गया कि अगर पीड़िता की मौत हो जाती है या जीवन भर के लिए अपंग हो जाती है तो बलात्कार के दोषियों को मौत की सज़ा का दंड दिया जाएगा। क़ानून में बलात्कार के अन्य कृत्यों में बिना पैरोल के आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया है। इसे राज्य का क़ानून बनने के लिए राज्यपाल और भारत के राष्ट्रपति दोनों की मुहर की ज़रूरत है। हालांकि बीजेपी द्वारा नियुक्त और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह के इशारे पर काम करने वाले राज्यपाल ने टीएमसी सरकार को अस्थिर करने के लिए इस क़ानून पर हस्ताक्षर कर दिए और उसे भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पास भेज दिया लेकिन इस पर उनके हस्ताक्षर होंगे, यह दूर की कौड़ी नज़र आ रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मोदी सरकार टीएमसी को किसी भी प्रकार की राजनीति “जीत“ देने से कतरा रही है।
विधानसभा में इस क़ानून के पक्ष में बोलते हुए बनर्जी ने इसे “ऐतिहासिक“ और पूरे देश के लिए “मॉडल“ बताया था।
हर अन्य मुद्दे की तरह ही सत्तारूढ़ वर्ग प्रतिक्रिया और हिंसा को ही आगे बढ़ाता है। भारत में बलात्कार और लैंगिक हिंसा के अन्य रूपों की व्यापकता पर आधिकारिक बहस पूरी तरह व्यक्तिगत और सांप्रदायिक संदर्भ में होती है और आज के पूंजीवादी भारत के दैनिक जीवन में व्याप्त बर्बरता के बारे में बिना बात किए हवा हवाई चीजों में सिमट जाती है। विडंबना है कि इसी देश में अमीर और ताक़तवर लोगों को खुली छूट है जबकि करोड़ों लोग रोज़ाना चंद पैसे पर जीने के लिए मजबूर हैं और पूंजी के वश में समाज की विकृतियाँ जाति-वाद और अन्य अर्ध-सामंती अस्तित्व के साथ नाभिनाल बद्ध हैं।
इसके अलावा इस पूरी बहस में, चाहे उपाय के बारे में ही क्यों न हो, पूरे देश के सरकारी अस्पतालों में जो भयावह हालात हैं उसके बारे में कोई बात नहीं हुई। जूनियन डॉक्टरों से गधों की तरह ऐसे सिस्टम में काम कराया जाता है जहां हर स्तर पर, चाहे सफ़ाई कर्मी हों, या नर्सें, टेक्नीशियन, जूनियर डॉक्टर या वरिष्ठ चिकित्सक हों, स्टाफ़ की भारी कमी है।
वरिष्ठ और जूनियर डॉक्टरों का अनुपात चार पर एक है, यानी बदहवास मरीजों और उनके परिवार के लोगों के समंदर को देखने का बोझ जूनियर डॉक्टरों पर पड़ता है। यही कारण है कि उन्हें 36-36 घंटे तक की अमानवीय शिफ़्टों में काम करने पर मज़बूर होना पड़ता है। यानी एक के बाद एक शिफ़्टों में काम करना पड़ता है।
इसीलिए कुछ सालों के काम के बाद युवा अवस्था में ही डॉक्टरों में काम के प्रति निराशा और थकान के लक्षण दिखना सामान्य हो गए हैं। एक युवा डॉक्टर ने न्यूयॉर्क टाइम्स से बात करते हुए कहा कि मरीजों के प्रति करुणा ख़त्म होने का उसे डर लगने लगा है क्योंकि वो एक दिन में सैकड़ों मरीजों को देखती है, मानों वो इंसान नहीं, किसी फ़ैक्ट्री के कल पुर्ज़े हों।
भारत के ठसाठस भरे और सुविधाओं से खाली अस्पतालों में मिलने वाले घटिया इलाज़ के कारण मरीजों के परिजनों के ग़ुस्से का सामना भी जूनियर डॉक्टरों को ही करना पड़ता है।
इन अस्पतालों में सुविधाएं इतनी अपर्याप्त और हालात इतने दयनीय होते हैं कि कुछ अस्पतालों में तो दो मरीज़ों को एक ही बिस्तर साझा करना पड़ता है और एक दूसरे की ओर सिर करके लेटते हैं।
कर्मचारियों की कमी के कारण, परिजनों से कहा जाता है कि वो मरीज की भर्ती के दौरान खुद नर्स और देख रेख वाला काम करें। डॉक्टर जो भी दवा लिखते हैं, उन्हें खुद ही लेने जाना पड़ता है, जिसमें सर्जरी के पहले और बाद की दवाएं होती हैं और गंभीर डायग्नोस्टिक टेस्ट के लिए उन्हें निजी अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है।
आम तौर पर टॉयलेट गंदे होते हैं और चूहों की भरमार होती है।
मांग और हताशा के यही हालात भ्रष्टाचार के फलने फूलने की जगह होते हैं। जैसा कि दक्षिणपंथी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने खुद ही माना है, 'अस्पतालों में बिस्तर मिलने और जीवन रक्षक दवाओं की कमी में भ्रष्टाचार के चलते आम लोगों को परेशानी झेलनी पड़ती है। हम इन सभी समस्याओं का हल चाहते हैं।'
इन हालात पर आक्रोश कभी-कभी प्रतिक्रियावादी रूप ले लेता है, और अधिक भ्रमित तत्व व्यक्तिगत डॉक्टरों पर हमला करने लगते हैं। मौमिता की मौत के तुरंत बाद, भीड़ अस्पताल पर हमला करती है, उपकरण नष्ट करती है और कर्मचारियों को आतंकित करती है।
उधर, आबादी का अमीर वर्ग सरकारी अस्पतालों से पूरी तरह बचता है और महंगे निजी अस्पतालों में देखभाल चाहता है, जहां सबसे अत्याधुनिक इलाज उपलब्ध हैं। तथाकथित चिकित्सा पर्यटन एक प्रमुख विकास उद्योग बन गया है, जिसमें विकसित पूंजीवादी पश्चिम में स्वास्थ्य सेवा निजीकरण से जुड़ी लगातार बढ़ती लागत से बचने के लिए लगभग दस लाख लोग भारतीय निजी अस्पतालों में इलाज कराते हैं।