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ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइटः मुंबई के स्वास्थ्यकर्मियों की असली ज़िंदगी की कहानी

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल All We Imagine as Light: A tender real-life story about Mumbai health workers for जो 17 जनवरी 2025 को प्रकाशित हुआ थाI

"ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट" में प्रभा (कनि कसरूती) और अनु (दिव्या प्रभा)। फ़ोटो (रिएल्टो डिस्ट्रिब्यूटर्स) [Photo: Rialto Distribution]

लेखिका/निर्देशक पायल कपाड़िया की पहली फ़िल्म 'ऑल वी इमेजिन एक लाइट', मानसून सीज़न में मुंबई के अस्पताल में काम करने वाली तीन मज़दूर वर्गीय महिलाओं की ज़िंदगी पर आधारित है।

प्रभा (कनि कसरूती) और अनु (दिव्य प्रभा) केरल राज्य की प्रवासी नर्सें हैं और पार्वती (छाया कदम) अस्पताल की कैंटीन में काम करती है और मुख्य रूप से दक्षिणी महाराष्ट्र में रत्नागिरि से आती है। अस्पताल में उनका आपस में परिचय होता है और फिर वे दोस्त बन जाती हैं।

कम वेतन, काम के लंबे घंटे, बहुत अधिक किराया, जीवन के दयनीय हालात और भारत में अकेली महिलाओं पर पहले से थोपे गए वर्गीय और धार्मिक पूर्वाग्रह, कड़ी मेहनत की मांग करने वाले और ध्रुवीकृत इस मेट्रोपोलिटन शहर में उनकी ज़िंदगी को लगातार संघर्ष में डाले रखते हैं।

प्रभा हेड नर्स हैं और अनु के साथ किराये के कमरे में रहती है। अनु एक मुस्लिम लड़के शियाज़ (हृधु हारून) से प्रेम करती है, जोकि आम तौर पर एक हिंदू महिला के लिए बदनामी वाला रिश्ता होता है।

अनु अपने इस अर्द्ध गोपनीय अफ़ेयर को जारी रखने पर दृढ़ है, जोकि एक ऐसा रिश्ता है जिसे दोनों के माता पिता नहीं स्वीकार करेंगे। प्रभा अनु के युवा जोश से भरे आत्मविश्वास के साथ थोड़ी असहज है लेकिन उस नौजवान महिला के बारे में अस्पताल में होने वाली खुसर फुसर में शामिल नहीं होती है।

प्रभा शादीशुदा है लेकिन माता पिता द्वारा कराए गए अरेंज्ड मैरिज से पहले वो अपने पति को ठीक से जानती तक नहीं थी और इसके तुरंत बाद ही वह जर्मनी चला गया था। सालों से उसकी कोई खोज खबर नहीं थी। चूंकि प्रभा अकेली है और उसे अपने पति के एक दिन लौट आने की बड़ी उम्मीद है, इसलिए अपने ऊपर आकर्षित अस्पताल के ही एक डॉक्टर मनोज से दोस्ती को वह खुद बहुत आगे नहीं बढ़ाती।

एक दिन प्रभा को एक अनजान सा पार्सल मिलता है, जिसमें एक बड़ा सा लाल रंग का कुकर होता है। हो सकता है कि यह उसके पति ने भेजा हो लेकिन इसके साथ कोई संदेश नहीं लिखा था और ना ही भेजने वाले का पता था। सिर्फ एक ही संकेत था 'मेड इन जर्मनी' का स्टिकर जो कुकर की तली में चिपका था। फ़िल्म में एक छोटा सा लेकिन बहुत पीड़ादायक सीन होता जब वह अपने किराये के साझे कमरे की फ़र्श पर अकेली बैठी होती है और आंखों में आंसू लिए उस उपहार को गले लगाती है।

प्रभा और अनु की दोस्ती पार्वती से हो जाती है, जिसके पति की हाल ही में मौत हो गई थी। एक रियल इस्टेट डेवलपर के गुंडे उसे लगातार परेशान करते हैं क्योंकि जहां वह रहती है, उस इलाक़े को खाली कराकर वहां एक बहुमंजिला लक्ज़री अपार्टमेंट बनाने की योजना है।

पार्वती और उसका परिवार एक टॉयलेट वाले कमरे में पिछले 20 सालों से रहता आ रहा है और उन्हें बताया गया है कि वही डेवलपर इसका मालिक है। लेकिन जैसा हज़ारों वर्करों को रातों रात अमीर बनने वाले डेवलपरों द्वारा खाली करा दिया जाता है, पार्वती के पास भी ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जिससे वह अपने मालिकाना हक़ को साबित कर सके।

पार्वती को कुछ ही दिनों में यह कमरा खाली करने का आदेश दे दिया जाता है और कहा जाता है कि गनपाला उत्सव से पहले ही वह खाली कर दे, जोकि मुंबई का सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव होता है। प्रभा और पार्वती एक नामी वकील से मदद के लिए संपर्क करती हैं लेकिन वह केवल सहानुभूति जताता है। बाद में वे एक यूनियन की मीटिंग में शामिल होती हैं, जिसमें एक महिला यूनियन नेता डेवलपरों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए एकजुट होने का आह्वान करती है।

"ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट" में पार्वती (छाया कदम) और प्रभा (कनि कसरूती)। (फ़ोटोः रिएल्टो डिस्ट्रिब्यूटर्स) [Photo: Rialto Distributors]

इस मीटिंग से उत्साहित होकर दोनों महिलाओं का ग़ुस्सा सड़क किनारे लगे डेवलपर के बिलबोर्ड पर उतरता है। इस विज्ञापन में बड़े दंभ के साथ एलान किया गया था, 'लक्ज़री रहन सहन का नया पताः वर्ग एक विशेषाधिकार है, जो सिर्फ विशेष लोगों के लिए आरक्षित है।'

फ़िल्म में एक जगह सूत्राधार की आवाज़ में कहा जाता है, 'कुछ लोग इसे सपनों का शहर कहते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह भ्रमों का शहर है। इस शहर में अनकहा नियम हैः अगर आप गटर में हों तब भी, आपको अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करने का अधिकार नहीं है। लोग इसे स्पिरिट ऑफ़ मुंबई यानी मुंबई की जीजीविषा कहते हैं. आपको इस भ्रम पर विश्वास करना ही होगा, वरना आप पागल हो जाएंगे।'

बेघर होने का सामना करते हुए और इस भ्रम से ऊब कर पार्वती यहां से समंदर तट की ओर कुछ सौ किलोमीटर दूर अपने गृह जनपद रत्नागिरि लौटने का फैसला लेती है। प्रभा और अनु भी पार्वती के साथ जाती हैं, वे वहां पार्वती को एक झोपड़ी में अपना घर जमाने में मदद करती हैं। मुंबई में ज़िंदगी और काम के रोज़ाना दबाव से मुक्त ये तीनों महिलाएं सुकून में हैं और अपनी भविष्य की ज़िंदगी के बारे में कुछ फैसले लेना शुरू करती हैं।

कपाड़िया की फ़िल्म रत्नागिरि को एक सुखद ज़िंदगी के लिए मुंबई के विकल्प के रूप में नहीं परोसती, क्योंकि पार्वती की झोपड़ी में न तो बिजली है और न टॉयलेट।

ना ही इसमें यह सुझाव दिया गया है कि इन नर्सों का मुंबई से अस्थाई पलायन और इन प्रवासी मज़दूरों पर थोपा गया मुश्किल सामाजिक दबाव, इन महिलाओं के लिए एक स्थाई समाधान है। हालांकि दक्षिण की ओर यात्रा उनकी ज़िंदगी में एक उम्मीद के जन्म लेने वाला मोड़ साबित होती है।

'ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट', सशक्त अभिनयों और रणबीर दास की विचारोत्तेजक सिनेमेटोग्राफ़ी के साथ एक दिलचस्प कहानी बयां करती है, ख़ासकर मानसून सीज़न में रणबीर दास के रात के समय लिए गए मुंबई के शॉट देखने लायक हैं। साथ ही इसमें इथोपियन कंपोज़र एमाहोय सेगू-मरियम गेब्रू का दिल को छू लेने वाले पियानो म्यूज़िक का दिलचस्प तरीके से बखूबी इस्तेमाल किया गया है। इस फ़िल्म में शियाज़ के साथ अनु के लव अफ़ेयर का चित्रण भी, हिंदू कट्टरपंथी मोदी सरकार और इसके समर्थकों द्वारा पैदा किए गए इस्लाम विरोधी हिस्टीरिया के प्रति एक अहम विषनाशक के तौर पर होता है।

"ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट" में अनु (दिव्या प्रभा) और शियाज़ (हृधु हारून)। (फ़ोटोः रिएल्टो डिस्ट्रिब्यूटर्स) [Photo: Rialto Distributors]

आम तौर पर समकालीन सिनेमा पर हावी नकली नायकों और आडंबरों से मुक्त यह एक ऐसी फ़िल्म है जो उन आम लोगों की ज़ंदगी का ईमानदारी से चित्रण करती है, जो मुंबई और दुनिया भर के अन्य मेगासिटी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के असली नायक हैं।

भारत के महान निर्देशक सत्यजीत राय ने विटोरियो डि सिका की 'द साइकिल थीफ़' की समीक्षा की थी और इसे बुनियादी सिद्धांतों का 'फिर से शानदार खोज' कहा था। उन्होंने लिखा, अपनी 'थीम की सार्वभौमिकता', अपने असरदार ट्रीटमेंट और प्रोडक्शन में बहुत कम लागत, इसे अध्ययन के नज़रिए से भारतीय फ़िल्म निर्माताओं के लिए इसे एक आदर्श फ़िल्म बनाता है।

राय ने कहा, 'मौजूदा समय में तकनीक के प्रति अंधी होड़, हमारे निर्देशकों के बीच असली प्रेरणा की कंगाली को ही दिखाता है। एक लोकप्रिय माध्यम के लिए, सबसे बढ़िया प्रेरणा ज़िंदगी से आनी चाहिए और उसकी जड़ें उसी में होनी चाहिए। चाहे जितनी टेक्नेलॉजी का इस्तेमाल किया जाए, वह किसी बनावटी थीम और ट्रीटमेंट में बरती जाने वाली ग़ैर ईमानदारी की भरपाई नहीं कर सकता। फ़िल्म निर्माताओं को ज़िंदगी और उसके यथार्थ की ओर लौटना ही होगा।”

ऐसा लगता है कि 'ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट' में इस बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह को ध्यान में रखा गया है।

कपाड़िया की फ़िल्म पिछले साल कांस फ़िल्म फ़ैस्टिवल में प्रीमियर की गई थी, जहां इसने प्रतिष्ठित ग्रैंड प्रिक्स अवॉर्ड जीता और अभी भी इसे तमाम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिल रहे हैं और उसे समीक्षकों की ओर से सराहना मिल रही है, जिसकी वह हक़दार भी है।

हालांकि ऑस्कर्स बेस्ट फ़ॉरेन लैंग्वेज श्रेणी के लिए फ़िल्में चुनने वाला फ़िल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एफ़एफ़आई), 'ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट' को नामित करने में विफल रहा। 13 सदस्यों वाली सेलेक्शन कमेटी के प्रमुख जाहनू बरुआ ने बाद में दावा किया कि ज़्यूरी ने पाया कि यह फ़िल्म 'तकनीकी रूप से बहुत कमज़ोर' थी।

इस फ़ैसले पर चारो ओर से हुई आलोचनाओं का जवाब देते हुए एफ़एफ़आई अध्यक्ष रवि कोट्टाराकारा ने मीडिया से कहा कि 'कमेटी को लगा कि वे एक ऐसी यूरोपीय फ़िल्म देख रहे हैं जिसे भारत में फ़िल्माया गया है, यह ऐसी भारतीय फ़िल्म नहीं लगी जिसे भारत में बनाया गया हो।'

असल में 'ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट' की स्क्रीनिंग पूरे भारत में हो रही है। इसके डिस्ट्रिब्यूशन के सौदे 50 से अधिक देशों में हुए हैं और यह अमेरिका में कई स्ट्रीमिंग सेवाओं पर उपलब्ध है, जोकि एक छोटे बजट वाली स्वतंत्र फ़िल्म के लिए एक दुर्लभ उपलब्धि है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। कपाड़िया की मानवीय और संवेदनशील फ़िल्म, इसके राष्ट्रीय मूल और नायक जिन हालात का इसमें सामना करते हैं, उनसे परे है और पूरी दुनिया में करोड़ों वर्कर जिन मुद्दों का सामना कर रहे है उनकी सशक्त आवाज़ बनकर उभरती है।

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