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केरल की स्टालिनवादी सरकार आशा स्वास्थ्यकर्मियों की हड़ताल को बदनाम कर रही है

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल Kerala’s Stalinist-led state government in India slanders striking ASHA public health workers  जो 14 मार्च 2025 को प्रकाशित हुआ थाI

केरल की हड़ताली आशा वर्करों ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रदर्शन किया। (फ़ोटो: बॉम्बे रोज़ी/इंस्टाग्राम) [Photo: Bombay Rosie/Instagram]

केरल में क़रीब 26,000 ग्रामीण सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मी बीते 9 फ़रवरी से ही हड़ताल पर हैं और स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीएम की अगुवाई वाली सरकार से मांग कर रही हैं कि उन्हें सम्मानजक वेतन दिया जाए और रिटायरमेंट के बाद बुनियादी पेंशन दी जाए।

आम तौर पर आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) वर्कर के रूप में जानी जाने वाली ये ग्रामीण सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मी उन ग्रामीण इलाक़ों में बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराती हैं जहां बहुत कम डॉक्टर होते हैं और न कोई अस्पताल होता है या अन्य कोई स्वास्थ्य सुविधाएं होती हैं।

पूरे देश में 10 लाख से अधिक आशा वर्कर हैं, इनमें एक बड़ी संख्या महिलाओं की है। इन सभी को बहुत मामूली मेहनताना दिया जाता है, हालांकि ये बहुत ज़रूरी ज़िम्मेदारी निभाती हैं, जिनमें टीकारण से लेकर पोषण और परिवार नियोजन तक की जागरूकता फैलाना शामिल है और सबसे महत्वपूर्ण कि वे गर्भवती महिलाओं की देखरेख करती हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्यकर्मियों की ग़ैर मौजूदगी के कारण, उन्हें शुरुआती मेडिकल जांच तक का काम भी खुद करना पड़ता है।

एक तरफ़ तो भारतीय प्रशासन द्वारा आशा वर्करों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता है जबकि दूसरी तरफ़, कोविड-19 के अलावा बड़े बड़े स्वास्थ्य संकटों में उनकी निभाई भूमिका के कारण, मीडिया और सरकारी अधिकारी, उन्हें “अग्रिम मोर्चे का योद्धा“ बताकर उनकी तारीफ़ करते हैं। निपाह वायरस और डेंगू जैसी महामारियों के फ़ैलने और केरल के वायनाड ज़िले में पिछले साल हुए भयानक भूस्खलन जैसी प्रकृतिक आपदाओं में भी उनकी अहम भूमिका रही है।

केरल की आशा वर्करों की हड़ताल को व्यापक रूप से समर्थन मिला है, मज़दूरों के अलावा प्रमुख कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने उनके समर्थन में आवाज़ उठाई है।

इस बीच, सीपीएम की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने झूठे प्रचार का सहारा लिया और अब वह हड़ताल को तोड़ने की कोशिश में 1,500 “अप्रेंटिस“ स्वास्थ्यकर्मी भर्ती की धमकी दे रही है।

मौजूदा समय में, केरल की आशा वर्करों को 7000 रुपये प्रति माह मेहनताना मिलता है और इसके अलावा 3,000 रुपये का भत्ता। सबको मिलाकर यह यह प्रति दिन 420 रुपये बैठता है।

हड़ताली वर्करों की प्रमुख मांग है 21,000 रुपये प्रति माह वेतन, परमानेंट नौकरी और रिटायरमेंट मुआवज़ा पांच लाख रुपया मिलना चाहिए। हाल के सालों में उनका वेतन स्थिर बना हुआ है जबकि खाने पीने की चीज़ों, ऊर्जा और अन्य ज़रूरी चीज़ों के दाम बहुत अधिक बढ़ गए हैं।

यह हड़ताल केरला हेल्थ वर्कर्स एसोसिएशन (केएचडब्ल्यूए) की ओर से चलाया जा रहा है, जो खुद के ”स्वतंत्र” यूनियन होने का दावा करती है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस यूनियन को राज्य विधानसभा में प्रमुख विपक्षी कांग्रेस पार्टी और स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) से समर्थन और सलाह मिल रही है। सीपीआई खुद ही केरल में सीपीएम की अगुवाई वाली डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार में जूनियर पार्टनर है।

इस हड़ताल को समर्थन देकर कांग्रेस और सीपीआई, सीपीएम की क़ीमत पर अपनी राजनीतिक आधार बढ़ाना चाह रहे हैं, जबकि दूसरी ओर वो ये भी सुनिश्चित करने का काम कर रहे हैं कि आशा वर्करों का संघर्ष केएचडब्ल्यूए के हाथ में ही बना रहे और सत्ता तंत्र के दायरे की राजनीति तक सीमित रहे और सीपीएम से अधिक रियायतें मांगने की खोखली अपीलों तक सीमित रहे।

भारत के 28 राज्यों में केरल ही एकमात्र राज्य बचा है, जहां कथित तौर पर “लेफ़्ट' की सीपीएम की अगुवाई वाली सरकार है। सीपीएम का दावा है कि वह मुनाफ़े पर लोगों की भलाई को अधिक तरजीह देती है, जबकि वह और सीपीआई भारतीय सत्ता संत्र के अभिन्न हिस्से के तौर पर दशकों तक काम करती रही हैं। जिन राज्यों में उनकी सरकारें रही हैं, जैसे, केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा- वहां उन्होंने कथित “निवेशक परस्त“ नितियों को ही लागू किया है। राष्ट्रीय स्तर पर, पिछले तीन दशकों में, उन्होंने धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्वादी बीजेपी के विरोध के नाम पर, उन दक्षिणपंथी सरकारों का ही समर्थन किया जिन्होंने पूंजीपति वर्ग के नव उदारवादी एजेंडे को अपने यहां लागू किया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ रणनीतिक साझेदारी को और बढ़ाया।

सीपीएम से संबद्ध सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) और सीपीएम के नेताओं ने आशा वर्करों की हड़ताल की कड़ी निंदा की है। उन्होंने उन पर अराजतावादी होने और मज़दूरों के बीच “हड़ताल का संक्रमण“ फ़ैलाने की कोशिश करने का आरोप लगाया।

हड़ताल करने वालों को अलग थलग करने और उन्हें धमकाने के लिए केरल की स्वास्थ्य मंत्री और सीपीएम की नेता वीना जॉर्ज ने कहा कि केरल की आशा वर्करों को देश में सबसे अधिक वेतन मिलता है, उनका इशारा है कि इन आशा वर्करों को प्रतिमाह मिलने वाले भुगतान से संतुष्ट रहना चाहिए, जोकि उन्हें और ग़रीबी के जाल में फंसाए हुए है।

सीपीएम के स्टालिनवादी भी हिंदू वर्चस्ववादी भाजपा सहित विपक्षी दलों द्वारा हड़ताल के समर्थन में दिए गए झूठे बयानों का इस्तेमाल कर आशा कार्यकर्ताओं के संघर्ष को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। वे हड़ताल को, भारत की एकमात्र “लेफ़्ट“ सरकार को अस्थिर करने की विपक्ष की साज़िश क़रार देकर बदनाम कर रहे हैं।

ये सब सफ़ेद झूठ है।

स्टालिनवादी सीपीएम आशा वर्करों पर इसलिए हमला कर रही है क्योंकि उन्हें डर है कि उनका जुझारू संघर्ष, मज़दूर वर्ग का एक व्यापक आंदोलन बनने में घी का काम कर सकता है। इस तरह का आंदोलन, वैश्विक निवेशकों के बीच केरल को सस्ते लेबर प्रोडक्शन के स्वर्ग के रूप में प्रचारित करने की केरल के मुख्यमंत्री और सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य पिनराई विजयन की कोशिशों को नुकसान पहुंचाएगा।

फ़रवरी के अंत में, विजयन ने 'इनवेस्ट इन केरला ग्लोबल समिट' का दो दिवसीय सम्मेलन आयोजन किया था, जिसमें 3,000 से अधिक बिज़नेस प्रतिनिधि शामिल हुए थे और कथित तौर पर इस दौरान 374 कंपनियों की ओर से 1.5 ट्रिलियन रुपये (17.2 अरब डॉलर) के निवेश पर सहमति दी गई, इनमें विदेशी और घरेलू दोनों कंपनियां थीं। इस आयोजन से पहले और इसके दौरान एलडीएफ़ सरकार ने ”ईज़ ऑफ़ डूईंग बिज़नेस” को बढ़ाने का वादा किया, यह एक ऐसा जुमला है जिसके तहत पर्यावरणीय और अन्य नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। विजयन सार्वजनिक कंपनियों को भी बेचना चाह रहे हैं, और यह काम राज्य सरकार की मालिकाने वाली कंपनियों में ”पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप” (पीपीपी) मॉडल के द्वारा करना चाहते हैं। इसमें केरला स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन (केएसआरटीसी) भी शामिल है जो ग्रामीणों और कम आमदनी वाले शहरी लोगों के लिए सस्ती बस सेवाएं मुहैया कराती है।

अगर अपने संघर्ष में वे टिकी रहती हैं, तो आशा वर्करों को सत्ता तंत्र से जुड़े केएचडब्ल्यूए यूनियन अधिकारियों से इस संघर्ष को अपने हाथ में ले लेना होगा। उन्हें तत्काल इसे व्यापक बनाने की ज़रूरत है, और अपने संघर्ष को सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण, ठेका मज़दूरी के प्रसार, और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में कटौती के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की लामबंदी का अगुआ बनाने की लड़ाई लड़नी होगी।

केएचडब्ल्यूए का नेतृत्व, इस हड़ताल के प्रति मज़दूरों, ग्रामीण ग़रीबों और मध्य वर्ग के विभिन्न तबकों के बीच समर्थन फैलाने का अड़ियल विरोध करता है, जैसा कि बुकर पुरस्कार विजेता उपन्यासकार अरुंधति रॉय, अभिनेत्री कनी कसरुति और मलयालम लेखिका पी. गीता के समर्थन संदेशों से संकेत मिलता है।

केएचडब्ल्यूए ने इस हड़ताल को अन्य राज्यों की आशा वर्करों में फैलाने या खस्ताहाल सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के प्रति एक व्यापाक मज़दूर वर्गीय चुनौती के साथ इसे जोड़ने की कोई कोशिश नहीं की। दशकों तक, कांग्रेस पार्टी और बीजेपी की अगुवाई वाली दोनों ही सरकारों के तहत भारतीय राज्य ने सभी स्तरों पर स्वास्थ्य पर जीडीपी के दो प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं किया, यानी आम तौर पर विशाल परमाणु हथियार से लैस मिलिटरी पर खर्च इससे ज़्यादा किया गया।

आठ मार्च को इंटरनेशनल वुमेंस डे पर यूनियन ने केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम में राज्य सरकार के सचिवालय के बाहर एक रस्मी प्रदर्शन आयोजित किया था। केएचडब्ल्यूए ने अब उसी जगह पर सोमवार, 17 मार्च को एक बड़े प्रदर्शन का आह्वान किया, जिस दिन हड़ताल के 36 दिन पूरे होने वाले थे। हालांकि उसका उद्देश्य व्यापक मज़दूर वर्गीय समर्थन इकट्ठा करने का नहीं बल्कि रैंक एंड फ़ाइल में बढ़ती बेचैनी पर नियंत्रण बनाए रखना उनका मुख्य उ्ददेश था।

हड़ताली आशा वर्करों को, केएचडब्ल्यूए यूनियन तंत्र, इसके कांग्रेस पार्टी और स्टालिनवादी सीपीआई सहयोगियों, प्रतिद्वंद्वी पूंजीवादी पार्टियों के सभी प्रतिनिधियों और सांप्रदायिक तत्वों और जातीय क्षेत्रवादी अपीलों से अलग रैंक एंड फ़ाइल कमेटियां बनानी चाहिए।

मज़दूर अपने वर्ग हितों का दावा तभी ठोंक सकते हैं और अपनी सामाजिक शक्ति को संगठित तभी कर सकते हैं जब वे सम्पूर्ण पूंजीवादी राजनीतिक सत्ता तंत्र से मुक्त हो जाएं और सचेत रूप से इसके विभिन्न प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवादी, सांप्रदायिक और जातीय-क्षेत्रवादी अपीलों को अस्वीकार कर दें।

केरल में सीपीएम और कांग्रेस पार्टी से जुड़ी ट्रेड यूनियनों का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने के बावजूद, वे राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ बढ़ते सामाजिक आक्रोश को विपक्षी इंडिया गठबंधन की ओर मोड़ने के लिए काम कर रही हैं। कांग्रेस पार्टी की अगुवाई में, जिसमें फासीवादी शिव सेना का भी एक धड़ा शामिल है, इंडिया गठबंधन का मकसद मौजूदा सरकार की जगह लेना है और वह बड़े उद्योगपतियों के समर्थन और चीन के ख़िलाफ़ भारत-अमेरिका की “वैश्विक रणनीतिक साझेदारी“ वाली नीतियों के मामले में बीजेपी से किसी भी मामले में कम नहीं है।

आशा वर्करों की रैंक एंड फ़ाइल कमेटियों का एक अहम कार्यभार तो यह होगा कि वे संघर्ष को और फैलाएं और केरल और पूरे भारत में सरकारी और प्राइवेट दोनों सेक्टरों में काम करने वाले सभी वर्करों में एक मज़दूर वर्गीय जवाबी कार्रवाई विकसित करने और एक व्यापक समर्थन हासिल करने की कोशिश करें। इसमें भारत भर में आशा वर्करों से स्थायी नौकरियों और रोज़गार की समान शर्तों के लिए संयुक्त संघर्ष के लिए सीधी अपील शामिल होनी चाहिए - जिसमें सभी के लिए 21,000 रुपये न्यूनतम मासिक वेतन शामिल है - और अंबानी, अडानी और अन्य अरबपतियों की अवैध रूप से अर्जित संपत्ति को ज़ब्त करके सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के विस्तार में सरकारी खजाने का व्यापक निवेश शामिल है। इसमें रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियों के इंटनरेशनल वर्कर्स अलायंस (आईडब्ल्यूए-आरएफ़सी) के माध्यम से दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं और अन्य मज़दूरों के साथ जुझारू संबंध बनाना भी शामिल होना चाहिए।

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