31 अगस्त 2023 को अंग्रेजी में प्रकाशित 'India’s anti-Modi opposition electoral alliance: A right-wing political trap for the working class' लेख का हिंदी अनुवाद है.
हाल ही में बने विपक्षी चुनावी गठबंधन 'इंडिया' के नेता मुंबई में दो दिन की बैठक कर रहे हैं, जो शुक्रवार को एक औपचारिक मेल मुलाक़ात के बाद समाप्त होगा.
यह गठबंधन, नौ साल के धुर दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री नरेंद्र और उनकी हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी की विकल्प के रूप में एक 'प्रगतिशील', 'लोकतांत्रिक' और 'सेक्युलर' विकल्प का दावा करता है. इसमें दो दर्जन पार्टियां शामिल हैं. प्रमुख पार्टियों में हैं- कांग्रेस पार्टी है, जो हाल तक भारतीय बुर्जुआज़ी की सबसे चहेती पार्टी हुआ करती थी, क्षेत्रीय धुर राष्ट्रवादी पार्टियों में तृणमूल कांग्रेस और डीएमके हैं, जो क्रमशः पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में शासन करती हैं, जाति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) हैं, जो गंगा के मैदानी इलाक़े वाले हिंदी बेल्ट के राज्यों में सत्ताधारी राजनीति की बड़ी खिलाड़ी हैं और आम आदमी पार्टी है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उभर कर आई है और पंजाब और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जिसका शासन है.
कांग्रेस से लेकर इन सब पार्टियों का रिकॉर्ड रहा है कि जब वे सत्ता में थीं, उन्होंने उद्योगों को नियमों में ढील देने, निजीकरण, ठेकेदारी प्रथा को लागू करने और बड़े उद्योगों और अमीरों के टैक्स कम करने के भारतीय बुर्जुआजी़ के निवेश समर्थक एजेंडा को ही धुआंधार तरीके से लागू किया. उन्होंने भारत की विशाल सैन्य तैयारियों और 'भारत-अमेरिका वैश्विक रणनीतिक साझेदारी' का खुलकर समर्थन किया, जिसके तहत चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवाद की सैन्य-रणनीतिक आक्रामकता में, नई दिल्ली को पूरी तरह नत्थी किया जा रहा है.
इनमें से किसी मुद्दे पर, स्टालिनवादी पार्टियों- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) या सीपीएम, सीपीआई और माओवादी सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन को ज़रा सा भी ऐतराज नहीं है. विपक्षी गठबंधन के वो सबसे उत्साही घटक हैं और इसके मक़सद- भारतीय बुर्जुआज़ी को एक वैकल्पिक दक्षिणपंथी सरकार का वादा- का पूरा समर्थन करते हैं.
विपक्षी गठबंधन, जिसने खुद को इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इनक्लूसिव अलायांस या 'इंडिया' का नाम दिया है, इसका प्रतिक्रियावादी चरित्र उसके अगुवा नेतृत्व- भारत के तीसरे सबसे बड़े राज्य बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और इनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड)- में देखा जा सकता है. 1997 से 2014 और फिर 2017 से पिछले साल अगस्त तक कुमार और उनकी जेडीयू या इसकी पूर्ववर्ती पार्टी समता पार्टी बीजेपी नीत नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) का हिस्सा रही और पहले अटल बिहारी वाजयपेयी और फिर मोदी सरकार में भी शामिल रही. इस बीच बिहार में बीजेपी ने जेडीयू के जूनियर पार्टनर के रूप में कई बार गठबंधन सरकारों में हिस्सेदारी की.
नीतीश कुमार ने इस नए नवेले गठबंधन की पहली मीटिंग का आयोजन किया और इसकी अध्यक्षता की. 23 जून को पटना में 16 विपक्षी पार्टियों ने इसमें हिस्सा लिया. हाल के सप्ताहों में कुमार ने कई बार बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी की तारीफ़ की, जोकि मोदी की तरह ही हिंदू बर्चस्ववादी आरएसएस के आजीवन सदस्य रहे थे. पिछले महीने ही नीतीश ने दिल्ली जाकर वाजपेयी की बरसी पर उन्हें सार्वजनिक रूप से श्रद्धांजलि दी थी. ये करके कुमार ने संकेत दिया कि अगर इंडिया गठबंधन में उन्हें प्रमुख ज़िम्मेदारी नहीं दी गई तो जेडीयू के पास विकल्प खुला है.
मुंबई की बैठक की मेज़बानी आधिकारिक रूप से उद्धव बाला साहब ठाकरे द्वारा की गई है जो शिव सेना के दो धड़ों में से एक के नेता हैं. यह वही फासीवादी पार्टी है जिसे उनके पिता, कुख्यात मराठा दबंग और साम्प्रदायिक बाल ठाकरे ने की थी. एक तरफ़ नीतीश कुमार दावा करते हैं, हालांकि कुतर्क ही है, कि वो साम्प्रदायिकता विरोधी हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ शिव सेना (उद्धव बालासाहेबा ठाकरे) हिंदुत्व और उसी ख़तरनाक हिंदू बर्चस्ववादी विचारधारा की झंडाबरदार है, जिसे बीजेपी और मोदी अपनी मूल विचारधारा बताते हैं.
इस सप्ताह हुई बैठक में इंडिया गठबंधन के नेताओँ ने कहा कि वो एक न्यूतन साझा कार्यक्रम लेकर आएंगे और मुख्य नीतियों की एक रूपरेखा बनाएंगे जिसे, 2024 के बसंत में होने वाले आम चुनावों में बीजेपी और इसके एनडीए गठबंधन को सत्ता से बाहर करने के लिए लागू किया जाएगा.
भारत जिस तबाही से होकर गुजर रहा है, चाहे बड़ी तादाद में बेरोज़गारी हो, व्यापक ग़रीबी हो या सरकार और बड़े उद्योगपतियों के सांठगांठ से भ्रष्टाचार हो रहा हो, इन सामाजिक संकटों के बारे में अब तक, उन्होंने केवल अस्पष्ट और सबसे ज़ाहिर शब्दों में बात की है.
गठबंधन के सबसे अहम दलों में से कुछ दल, जैसे कि डीएमके, स्टालिनवादियों के समर्थन के साथ इंडिया गठबंधन पर, दलितों और अन्य ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित जातीय समूहों के लिए आरक्षण को प्राइवेट सेक्टर तक बढ़ाने का दबाव डाल रहे हैं. हालांकि इसे 'सामाजिक न्याय' को झटका और बीजेपी के हिंदू साम्प्रदायिकता अपील के प्रतिवाद के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन आरक्षण का और विस्तार गहरे तौर पर प्रतिक्रियावादी है. यह मज़दूर वर्ग को बांटने का काम करता है और पूंजीवाद द्वारा पैदा की गई तबाही को और अधिक बराबारी से बांटने के लिए आपस में संघर्ष को जन्म देता है.
विपक्षी पार्टियों ने जो भी न्यूनतम साझा कार्यक्रम प्रस्तावित किया है, उसमें विदेश नीति के बारे में बहुत कम चर्चा होने की उम्मीद है. लेकिन ये ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी ने चीन के साथ तीन साल पुराने सीमा विवाद में और आक्रामक रुख़ अख़्तियार न करने के लिए बीजेपी सरकार की लगातार आलोचना की है. आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी ओर से सभी चीनी सामानों के 'राष्ट्रीय बहिष्कार' का आह्वान तक किया है.
शुक्रवार को विपक्षी सम्मेलन में सबसे विवादित सीट शेयरिंग के मुद्दे पर चर्चा होने और इसके आधिकारिक संयोजक के नाम पर भी चर्चा की उम्मीद है, हालांकि मीडिया में ख़बरें हैं कि कुछ पार्टियां संयोजक के चुनाव का विरोध कर रही हैं क्योंकि भविष्य में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के चुनाव पर इसका असर पड़ेगा.
बदनाम पार्टियों का प्रतिक्रियावादी गठबंधन
'इंडिया' गठबंधन एक राजनीतिक फ़्रॉड है. यह आम तौर पर बदनाम पूंजीवादी पार्टियों का प्रतिक्रियावादी गठबंधन है और पूंजीपतियों के प्रति वफ़ादारी में बीजेपी से वो कहीं भी कम नहीं हैं और भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रीय अंध राष्ट्रवादिता की राजनीति और सेक्युलर दिखावे के बावजूद, साम्प्रदायिकता में डूबी हुई हैं.
गौरतलब है कि 18 जुलाई को बेंगलुरू में आयोजित अपनी दूसरी बैठक में, उपस्थित 26 दलों ने एक संक्षिप्त प्रस्ताव पास किया जिसमें 'अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा' की निंदा की गई और दलितों, आदिवासियों और कश्मीरी पंडितों को नाम लेकर पीड़ित बताया गया. लेकिन भारत के मुसलमानों का कोई ज़िक्र नहीं किया गया, जो भाजपा और उसके हिंदू दक्षिणपंथी सहयोगियों द्वारा निंदा और धमकी के निरंतर अभियान के निशाने पर हैं.
भारत के पांचवें सबसे बड़े राज्य मध्य प्रेदश में कांग्रेस पार्टी, दक्षिणपंथी मुद्दे पर बीजेपी को हराने के लिए राज्य के चुनावों में अपनी तैयारी कर रही है, जोकि इस साल के अंत में होने वाले हैं. इसने हाल ही में एक हिंदुत्व संगठन बनाया है जिसका नाम है बजरंग सेना. यह वही कांग्रेस है जिसने शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) को इंडिया गठबंधन का एक 'प्रगतिशील' और बहुमूल्य सहयोगी बताने में प्रमुख भूमिका निभाई. ये फ़ेहरिश्त लंबी है.
विपक्षी गठबंधन, नीचे से सामाजिक विरोध की आंधी तेज़ होने के डर से पैदा हुआ है. पूरे भारत में निजीकरण, ठेका प्रथा, बकाया मज़दूरी और छंटनी से मज़दूरों के बीच अक्सर विस्फोटक संघर्ष फूट पड़ा है.
बीजेपी, भारत के दुनिया में सबसे अधिक विकास दर का ढोल पीट रही है जबकि सच्चाई यह है कि भारत व्यापक सामाजिक गैरबराबरी से त्रस्त है, जहां देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीर, सबसे ग़रीब 70 प्रतिशत आबादी की चार गुना संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं.
कोविड-19 और यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ अमेरिका-नैटो द्वारा उकसाए गए जंग से अब निकलते आर्थिक झटकों ने भुखमरी और कुपोषण को बढ़ा दिया है. सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, देश की 7.9 प्रतिशत आबादी बेरोज़गार है. यह एक ऐसे देश का हाल है जहां बेरोज़गारों के लिए सरकार की ओर से कोई मदद की नीति ही नहीं है.
साम्प्रदायिकता को लगातार हवा देकर, बीजेपी, सामाजिक आर्थिक बदतरी और हताशा को पूंजीवादी शोषण से दूर भटकाना और मज़दूर वर्ग को बांटना चाहती है.
हिंदू दक्षिणपंथियों के साथ रंग में रंगने और उनके साथ तालमेल बिठाकर विपक्षी पार्टियां सत्ताधारी वर्ग के एक धड़े के डर को ही आवाज़ दे रही हैं कि बीजेपी की उन्मांदी साम्प्रदायिकता और एकाधिकारवाद और अराजकता, सेना, अदालतों और अन्य सरकारी संस्थाओं को ख़तरनाक़ रूप से बदनाम और अस्थिर कर रहे हैं, जिन पर सत्ताधारी वर्ग अपने शासन के लिए बहुत हद तक निर्भर करता है.
विपक्षी गठबंधन बीजेपी द्वारा सत्ता को अपने हाथ में केंद्रित किए जाने के अभियान के डर से भी सक्रिय हुआ है, जिसमें संसदीय परम्पराओं और भारत के संघीय ढांचे को नेस्तनाबूद करना शामिल है. मोदी और उनके दाएं हाथ गृह मंत्री अमित शाह के उदाहरण का अनुसरण करते हुए, बीजेपी अपने बुर्जुआ राजनीतिक विरोधियों को देशद्रोही जैसा मानती है और बार बार आरोप लगाती है कि वे विदेशी ताक़तों के साथ सांठगांठ कर या मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाकर भारत को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि पहले की भी सरकारों ने अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए भ्रष्टाचार के आरोपों और आपराधिक जांचों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है लेकिन मोदी सरकार इसे एक नए स्तर पर ले गई है. बीते मार्च में राहुल गांधी, जोकि कांग्रेस के वास्तविक नेता और उस नेहरू गांधी परिवार की विरासत के उत्तराधिकारी हैं जोकि भारत की सबसे पुरानी पार्टी को नियंत्रित करता है, को दो साल की जेल की सज़ा सुनाई गई और संसद की सदस्या छीन ली गई. यह सब स्पष्ट रूप से मनगढंत आरोपों और मोदी के गृह राज्य की अदालतों द्वारा राजनीतिक मंशा से प्रेरित फैसले देने का परिणाम था. पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने गांधी की सज़ा को रद्द कर दिया, और अपील पर अंतिम फैसला आने तक उन्हें संसद में जाने की फिर से इजाज़त मिली.
भारतीय राजनीतिक सत्तातंत्र में स्टालिनवादी सबसे अहम धड़ा
कांग्रेस नीत यूपीए सरकार द्वारा बड़े व्यवसायियों को बढ़ावा देने में अपनाई गई भूमिका और जिन राज्यों में उनकी सरकार थी वहां निवेश समर्थक नीतियां थोपने के कारण, स्टालिनवादियों और वाम मोर्चे का चुनावी समर्थन पिछले एक डेढ़ दशक में काफ़ी कम हुआ है. आज भारत के 28 राज्यों में स्टालिनवादियों की सिर्फ एक राज्य में सरकार है, वो है केरल और 543 सदस्यों वाले निचले सदन, लोकसभा में सीपीएम और सीपीआई के केवल पांच सांसद हैं.
हालांकि स्टालिनवादियों ने बुरी तरह बिखरे इंडिया चुनावी गठबंधन को एक साथ लाने में अहम भूमिका निभाई और कांग्रेस पार्टी उन्हें बीजेपी विरोधी गठबंधन का अहम घटक मानती है. कांग्रेस ने पिछले 75 साल तक भारत की राष्ट्रीय सरकार का बड़े हिस्सेदार के रूप में नेतृत्व किया है और जिसकी बुर्जुआज़ी के साथ गाढ़ी दोस्ती रही है.
स्टालिनवादियों से उम्मीद है कि वे विपक्षी गठबंधन को सबसे ज़रूरी 'प्रगतिशील रंग' मुहैया कराएंगे. इससे भी अहम है कि वे अपने ट्रेन यूनियन महासंघों के मार्फ़त मज़दूर वर्ग के प्रमुख हिस्से पर अपने राजनीतिक प्रभाव को बनाए रखेंगे. ऐसा प्रभाव जिसका वे वर्ग संघर्ष को दबाने में इस्तेमाल करेंगे और मज़दूरों और ग्रामीण मेहनतकश आबादी के बढ़ते गुस्से को कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के पीछे खड़ा करने में मोड़ने की कोशिश करेंगे.
पिछले महीने कोलकाता में सीपीएम से संबद्ध सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स (सीटू) ने एक रैली आयोजित की थी और जिसमें कांग्रेस और अन्य बड़ी पार्टियों से जु़ड़ी यूनियनों समेत बहुतेरी यूनियनें और यूनियन फ़ेडरेशनों ने हिस्सा लिया. इसमें यूनियनों ने एलान किया कि उनका मुख्य लक्ष्य है अगले चुनाव में बीजेपी सरकार को हटाकर इंडिया गठबधन को लाना. इस लक्ष्य को 'मोदी हटाओ देश बचाओ' के नारे में पिरोया गया था.
तीन दशकों से अधिक समय से, स्टालिनवादियों ने 'फासीवादी बीजेपी' से लड़ने के नाम पर केंद्र और राज्यों में एक के बाद एक दक्षिणपंथी सरकारों का समर्थन किया है. और मज़दूर वर्ग को पूंजीवादी संकट के बरक्श, इसके अपने समाजवादी समाधान की ओर बढ़ने से राजनीतिक तौर पर दबाया और रोका गया, परिणास्वरूप हिंदू दक्षिणपंथ का ख़तरा और बढ़ता ही गया है.
आज, बाकी दुनिया की तरह ही, भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र की संस्थाएं धाराशाई दिखाई देती हैं, ऐसे में स्टालिनवादी, मज़दूर वर्ग को भारतीय राज्य और कांग्रेस और कई दक्षिणपंथी जातिवादी और क्षेत्रीय राष्ट्रवादी पार्टियों के साथ नत्थी करने की कोशिशों को परवान चढ़ा रहे हैं.
मज़दूर और समाजवादी विचारधारा वाले नौजवानों को बिल्कुल अलग और विपरीत रास्ता अख़्तियार करना होगा. लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और साम्प्रदायिक उभार को हराने के संघर्ष का आधार वर्ग संघर्ष को बनाना होगा. इसे सामाजिक बराबरी के लिए और साम्राज्यवादी युद्ध और अमेरिका साम्राज्यवाद के साथ भारतीय बुर्जुआज़ी के विनाशक गठबंधन के ख़िलाफ़ संघर्ष से जोड़ना होगा.
इसके लिए मज़दूर वर्ग को अपने संघर्ष को कई गुना बढ़ाने और खुद को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने की ज़रूरत है और भारतीय पूंजीवाद और इसके राजनीतिक प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ अपने पीछे ग्रामीण आबादी को गोलबंद करने और दुनिया एवं दक्षिण एशिया में समाजवादी परिवर्तन के लिए मज़दूर और किसान सत्ता के लिए संघर्ष को खड़ा करने की ज़रूरत है.