12 फ़रवरी, 2024 को अंग्रेजी में प्रकाशित Infighting in Pakistan’s ruling elite intensifies following shock election result लेख का हिंदी अनुवाद है.
आबादी के मामले में दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश पाकिस्तान में पिछले गुरुवार को हुए चुनाव के नतीजे देश की सेना, जोकि लंबे समय से सबसे ताक़तवर राजनीतिक खिलाड़ी रही है, के लिए तगड़ा झटका है.
न्यायपालिका और राज्य की मशीनरी के समर्थन से, उसने चुनावी प्रक्रिया में हद से ज़्यादा धांधली की ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि जेल में बंद विपक्षी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) का पाकिस्तानी सत्ता तंत्र की राजनीति में एक अहम किरदार के रूप में सफाया हो जाए.
लेकिन इसकी बजाय हुआ ये कि पीटीआई द्वारा समर्थित “स्वतंत्र“ उम्मीदवारों ने नेशल असेंबली चुनावों में सबसे अधिक सीटें जीत कर नंबर वन स्थिति में पहुंच गए. ग़ौरतलब है कि पीटीआई को इसके चुनाव चिह्न पर चुनावों में भाग लेने नहीं दिया गया था.
आधिकारिक नतीजों के अनुसार, पीटीआई समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवारों ने गुरुवार को हुए चुनाव में नेशनल असेंबली की 266 सीटों में से 93 सीटों पर जीत हासिल की. हालांकि इन नतीजों को पीटीआई और कई अन्य पार्टियों ने मतदान पत्रों में हेरफेर के आधार पर चुनौती दी है.
चुनावों से पहले सेना और अदालतों ने तीन बार के प्रधानमंत्री रह चुके नावज शरीफ़ और उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़)- पीएमएल-एन की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ़ कर दिया था लेकिन उसे महज 75 सीटें ही मिल सकीं. पीएमएल-एन की लंबे समय से मुखर प्रतिद्वंद्वी रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) 53 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर ही, जबकि बाकी 45 सीटें स्वतंत्र उम्मीदवारों और दर्जन भर छोटी पार्टियों के हिस्से आईं.
पाकिस्तान की मिलिटरी के पास बेशुमार राजनीतिक और आर्थिक ताक़त है और वह अमेरिकी साम्राज्यवाद और पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग के बीच संरक्षक-ग्राहक के सात दशक पुराने रिश्ते की धुरी रही है.
वॉशिंगटन के उकसावे पर मिलिटरी ने इमरान ख़ान को प्रधानमंत्री के पद से हटाने की साज़िश के तहत अप्रैल 2022 में अविश्वास मत के मार्फत सत्ता परिवर्तन किया. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि पाकिस्तान की तत्कालीन पीटीआई नीत सरकार ने यूक्रेन को लेकर रूस के साथ अमेरिका-नेटो द्वारा भड़काए गए युद्ध में 'तटस्थता' की नीति अपनाई थी.
हालांकि वो एक दक्षिणपंथी इस्लामिक पॉपुलर नेता हैं, फिर भी ख़ान और उनकी पीटीआई को पिछले मई से ही क़ानूनी बदले की कार्रवाई का निशाना बनाया जा रहा है, जब अर्द्धसैनिक बलों ने एक कोर्ट पेशी के दौरान गिरफ़्तार कर लिया और उनके समर्थकों ने देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया और उस दौरान कुछ चंद सैन्य कार्यालयों और कम से कम एक वरिष्ठ अधिकारी के आवास पर हमले किए गए. ख़ान और पीटीआई के कई अन्य वरिष्ठ नेताओं को जेल में डाल दिया गया. इसके साथ ही पार्टी के हज़ारों कार्यकर्ताओं को फ़र्जी 'आतंकवाद' के आरोपों में जेल भेज दिया गया.
पिछले गुरुवार को मतदान के क़रीब आते आते यह दमन और तेज़ हो गया. ख़ान को तीन अलग अलग मामलों में लंबे समय के लिए क़ैद की सज़ा सुना दी गई और चुनाव में खड़ा होने के लिए अयोग्य करार दे दिया गया. पीटीआई को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया और जो पीटीआई समर्थित उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए, उन्हें मतपत्र पर क्रिकेट बैट के चिह्न का इस्तेमाल नहीं करने दिया गया, जो एक ऐसे देश में बहुत बड़ी बाधा है जहां 40 प्रतिशत आबादी अशिक्षित है.
धमकियों और हिंसक हमलों के कारण पीटीआई समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवारों ने अपना पूरा प्रचार लगभग ऑनलाइन किया. यही नहीं 'वोट देने के लिए बाहर निकलने' की मुहिम को फ़्लॉप करने के लिए मतदान के दिन मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं को अचानक पूरे देश में बंद कर दिया गया.
पीटीआई दावा कर रही है कि अगर मतपत्रों में घपलेबाज़ी और अन्य धांधली न हुई होती तो वो 175 सीटें जीतती.
ये बात तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि करोड़ों पाकिस्तानियों ने वोटों पर कब्ज़ा कर, सेना की अकूत ताक़त और पहुंच और सम्पूर्ण रूप से पारंपरिक सत्तारूढ़ सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति, अपने गुस्से और विरोध का इज़हार किया.
यह उम्मीद की गई थी कि चुनावों में मिलिटरी की घपलेबाज़ी से निराशा के कारण मतदान प्रतिशत काफ़ी गिर जाएगा. हालांकि शुरुआती रिपोर्टें बताती हैं कि मत प्रतिशत में 2018 चुनावों के 51 प्रतिशत के मुकाबले मामूली गिरावट (48 प्रतिशत) आई. डरने की बजाय करोड़ों लोगों ने नाफ़रमानी में अपने घरों से मतदान के लिए निकले. और यह खान के शहरी मध्य वर्ग के बीच पारंपरिक जनाधार से कहीं आगे निकल गया और इसमें मज़दूर वर्ग के दसियों लाख लोग और ग्रामीण मेहनतकश आबादी का भी एक हिस्सा शामिल हो गया.
ख़ान को बहिष्कृत करने और उन्हें सज़ा देने की कोशिश स्पष्ट रूप से उलटी पड़ गई और इसने सहानुभूति की एक लहर पैदा कर दी और एक 'राजनीतिक तौर पर बाहरी' के रूप में बड़ी सावधानी से बनाई गई उनकी छवि को भुनाने का उन्हें मौका मिला.
पाकिस्तान के 'हैरतअंगेज़ चुनाव' के बारे में पश्चिमी मीडिया रिपोर्टों में भी इसका संज्ञान लिया गया. जो बात अनकही रह गई है वह ये कि नतीजों ने अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके युद्धों के व्यापक विरोध को भी आकार दिया, जिसने पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान को तबाह कर दिया और पाकिस्तान के जनजातीय इलाक़ों में लाखों लोगों को सालों तक ड्रोन की निगरानी और हमलों का शिकार बनाया है.
पाकिस्तानियों में, ग़ज़ा में अमेरिकी शह पर इसराइल द्वारा फ़लस्तीनियों के जनसंहार को लेकर भी व्यापक गुस्सा था.
ख़ान कोई अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोधी नहीं हैं और ना ही पाकिस्तानी मिलिटरी, जिसने 2018 में उनके सत्ता में आने का रास्ता साफ़ किया था. लेकिन देश के राजनीतिक सत्ता तंत्र में अपने विरोधियों से उलट उन्होंने कई बार वॉशिंगटन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और उस पर धमकाने और पाकिस्तानी सम्प्रभुता से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया. लंबे समय तक राजनीतिक रूप से सक्रिय रहने वाले ख़ान ने पाकिस्तान में ओबामा-बाइडेन प्रशासन के ड्रोन युद्ध की निंदा करके, पिछले दशक के शुरुआती पांच सालों में अपने आधार में ज़बरदस्त विस्तार किया, जिसने तत्कालीन संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों की आबादी को आतंकित कर रखा था और बड़ी संख्या में लोगों का कत्लेआम किया था.
मिलिटरी और राजनीतिक सत्ता तंत्र को निराश करते हुए ख़ान ने बार बार सार्वजनिक रूप से आरोप लगाए कि वॉशिंगटन ने उन्हें सत्ता से बाहर करने की साज़िश रची, हालांकि बाद में उन्हें अपने आरोपों से पीछे हटना पड़ा. ख़ान और उनके पूर्व विदेश मंत्री और पीटीआई के उपाध्यक्ष शाह महमूद क़ुरैशी को 'सरकारी सीक्रेट' लीक करने के आरोपों में पिछले महीने के अंत में 10 साल की सज़ा सुनाई गई, जबकि उन्होंने इस आरोप का ज़ोरदार खंडन किया था. आरोप था कि पाकिस्तान के अमेरिकी राजदूत की ओर से एक केबिल लीक की गई जिसकी वजह से वॉशिंगटन ने धमकी दी कि अगर ख़ान देश के शीर्ष पद बने रहते हैं तो अमेरिका इस्लामाबाद को ठप कर देगा.
घरेलू और वैश्विक पूंजी द्वारा निर्देशित सार्वजनिक खर्चों में कटौती और आर्थिक 'पुनर्गठन' के उपायों को आगे बढ़ाने में एक कमज़ोर सरकार की क्षमता को लेकर आशंकाओं के बीच, काफी हद तक नाजायज माने गए चुनावी नतीजों ने पाकिस्तान के अभिजात वर्ग के भीतर अंदरूनी कलह को और तेज कर दिया है.
चुनावी सबक मिलने के बाद शनिवार को पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख जनरल सैयद असीम मुनीर ने एलान किया कि राष्ट्र को 'अराजकता की राजनीति और ध्रुवीकरण से आगे ले जाने के लिए स्थाई हाथों और मरहम की ज़रूरत है.'
यह खुली अपील थी कि पीएमएल-एन और पीपीपी को आपसी रस्साकशी बंद करनी चाहिए और पीटीआई को छोड़ कर अन्य पार्टियों के साथ एक राष्ट्रीय गठबंधन सरकार बनानी चाहिए. इस तरह की वार्ताएं जारी हैं. हालाँकि पीपीपी, नवाज़ शरीफ़ और उनकी पीएमएल-एन के साथ गठबंधन करके खुद को और अधिक समझौते की स्थिति में डालने से चिंतित है, जिसे ज़ाहिरा तौर पर सेना का वफ़ादार माना जाता है.
रविवार को पीपीपी चेयरमैन बिलावल भुट्टो ज़रदारी अमेरिकी राजदूत डोनाल्ड ब्लोम से मिलने इस्लामाबाद पहुंचे थे. यह बताता है कि वॉशिंगटन एक ऐसी सरकार के गठन के लिए पर्दे के पीछे से काम कर रहा है, जो उसके हितों की बखूबी रक्षा कर सके, जिसमें उसके कई मोर्चों पर युद्ध भी शामिल हैं, जबकि दूसरी तरफ़ वो चुनावी अनियमितताओं को लेकर चिंतित होने का बंधा बंधाया बयान भी जारी कर रहा है.
हालांकि सार्वजनिक रूप से इस्लामाबाद लगातार इस बात से इनकार कर रहा है लेकिन यह निश्चित है कि बुरी तरह ख़राब हो चुके पाकिस्तान-अमेरिका के रिश्तों में जो नई गर्मजोशी दिख रही है उसके पीछे यूक्रेन को दूसरे रास्तों से इस्लामाबाद से हथियार सप्लाई अहम कारण है.
पीटीआई चुनावी नतीजों को लगातार चुनौती देना जारी रखे हुए है और जनरल मुनीर के बयान के जवाब में कहा है कि सच्चा 'मरहम' यही होगा कि इमरान ख़ान और पीटीआई के सभी कैदियों को रिहा किया जाए और सत्ता तंत्र ये स्वीकार करे कि सरकार की अगुवाई करने के लिए पीटीआई के पास लोकप्रिय बहुमत है. लेकिन पार्टी के प्रवक्ता गौहर अली ख़ान ने कहा है कि अगर राष्ट्रीय सरकार बनाने में पीटीआई की कोशिशें विफल होती हैं तो वह विपक्ष में बैठेगी. इससे ये संकेत मिलता है कि पार्टी, सैन्य नेतृत्व वाले सत्ता तंत्र के साथ समझौता करने के लिए चुनावी नतीजों का फायदा उठाने की कोशिश में है.
आगे एक और राजनीतिक विवाद का विषय है महिलाओं और 'धार्मिक अल्पसंख्यकों' के लिए 'आरक्षित' नेशनल असेंबली की 70 सीटों का आवंटन. इन सीटों को पार्टियों को उनकी जीती हुई सीटों की संख्या के अनुपात में दिया जाता है, लेकिन चूंकि पीटीआई सदस्य स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुने गए, इसलिए हो सकता है कि उन्हें आरक्षित सीटें देने से इनकार कर दिया जाए.
पाकिस्तान आर्थिक, राजनीतिक और भूराजनीतिक संकटों से घिरा हुआ है. हाल के महीनों में सामाजिक संघर्षों की आंधी देखी गई है. इनमें दंडात्मक बिजली दरों में वृद्धि के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध, राष्ट्रीय एयरलाइन पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस समेत निजीकरण की लहरों का विरोध और लंबे समय से चल रहे जनजातीय राष्ट्रवादी विद्रोह का केंद्र रहे बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा 'ज़बरदस्ती ग़ायब' किए जाने और ग़ैर न्यायिक हत्याओं के ख़िलाफ़ 'लॉन्ग मार्च' भी शामिल है.
सत्तारूढ़ वर्ग के हलकों में माना जाता है कि जैसे ही अगली सरकार बनेगी आईएमएफ़ के पास आगे के कर्ज के लिए इस्लामाबाद को जाना पड़ेगा. मौजूदा समय में, देश के पास केवल 8 अरब डॉलर का ही विदेशी मुद्रा भंडार है, जो कि दो महीने के आयात के लिए भी काफी नहीं है.
हालांकि, और यह बीते शुक्रवार से देश के शेयर बाज़ार में आई भारी गिरावट से दिखता भी है, कि आईएमएफ़ और वैश्विक निवेश के पिशाचों को संतुष्ट करने के लिए सार्वजनिक खर्चों में कटौती और निजीकरण के लिए ज़रूरी उपायों को लागू करने की अगली सरकार की क्षमताओं पर संदेह है.
सोमवार को अख़बार 'डॉन' में पूर्व पाकिस्तानी राजनयिक मलीहा लोधी ने सवाल किया, 'एक कमज़ोर गठबंधन सरकार व्यापक आर्थिक सुधारों की संभावनाओं को धूमिल कर देगी, जिनकी पाकिस्तान को सतत विकास और निवेश को पटरी पर लाने की सख्त ज़रूरत है. अगर अगली सरकार अल्पमत वाली है, तो वह अन्य पार्टियों की खुशामदी करने पर निर्भर रहेगी, तो क्या वो देश को आर्थिक संकट से निकालने के लिए राजनीतिक रूप से मुश्किल और कड़े फैसले लेने में सक्षम होगी?'
पाकिस्तानी पूंजीवाद के सामने खड़ा भूराजनीतिक संकट भी ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है क्योंकि अमेरिका, पाकिस्तान के 'सदाबहार' रणनीतिक सहयोगी चीन के ख़िलाफ़ चौतरफ़ा आर्थिक और सैन्य रणनीतिक आक्रामकता का रुख़ अपनाए हुए है; और पाकिस्तान के चिर विरोधी भारत को रणनीतिक लाभ दे रहा है ताकि वो चीन के ख़िलाफ़ अपनी युद्ध की तैयारियों में और तेज़ी लाए; और अमेरिका पाकिस्तान के पश्चिमी सीमा के पड़ोसी देश ईरान के ख़िलाफ़ आक्रामक अभियान छेड़े हुए है, जिसके तेजी से खुले युद्ध में तब्दील होने का ख़तरा है.