29 फ़रवरी, 2024 को अंग्रेजी में प्रकाशित Indian port workers refuse to handle arms shipments to Israel लेख का यह हिंदी अनुवाद है.
भारत के 11 बड़े भारतीय बंदरगाहों पर काम करने वाले 3,500 मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले वॉर ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई) ने एलान किया है कि वो इसराइल को जाने वाले किसी भी पोत पर हथियारों को लादने या उतारने का काम नहीं करेंगे. यह घोषणा भारतीय मज़दूरों के अंदर उस इसराइली जनसंहार के ख़िलाफ़ गहरे गुस्से का संकेत है, जो वह अमेरिका के दिए हथियारों और वॉशिंगटन के पूर्ण राजनीतिक समर्थन से हज़ारों फ़लस्तीनियों पर कहर ढा रहा है.
ग़ज़ा में इसराइली जनसंहार से आक्रोषित दुनिया भर के मज़दूर और नौजवान लाखों की तादाद में प्रदर्शन कर मांग कर रहे हैं कि इसराइली सेना और इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की फासीवादी सरकार द्वारा किया जा रहा जनसंहार बंद हो.
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि ग़ज़ा में मरने वालों की संख्या 30,000 पार कर गई है जिसमें पुरुष, महिलाएं और बच्चे हैं. अगर लापता लोगों को शामिल किया जाए तो यह संख्या 37,000 पार कर जाएगी. अस्पताल, स्कूल और अन्य प्रमुख आधारभूत ढांचे नष्ट कर दिए गए हैं.
इसराइली सेना ने खाना, पानी, ईंधन, दवाएं और बिजली जैसी ज़रूरी आपूर्तियों को रोक दिया है जिससे बड़े पैमाने पर भुखमरी और बीमारी फैल रही है और इससे और भी मौतें हो रही हैं. अब इसराइल ग़ज़ा के दक्षिणी हिस्से रफ़ाह में घातक ज़मीनी हमले की तैयारी कर रहा है जहां 15 लाख फ़लस्तीनी बहुत ही बुरी स्थिति में रह रहे हैं.
भारत के मज़दूरों और ग्रामीण मेहनतकश आबादी में इस जनसंहार को लेकर व्यापक गुस्सा है. शायद यही वजह है कि डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई को इसराइल जाने वाले पोतों पर हथियार लादने के काम से इनकार करने की घोषणा करने पर मज़बूर होना पड़ा. हालांकि डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) नियंत्रित सेंटर ऑफ़ इंडियन ड्रेड यूनियंस (सीटू) से संबद्ध है और उसने ऐसा मज़दूरों के बीच अपनी साख़ बचाने की उम्मीद में किया, न कि जनसंहार के ख़िलाफ़ मज़दूरों को व्यापक रूप से लामबंद करने की असली मंशा से. फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ साम्राज्यवादी समर्थित इसराइली जनसंहार और इसमें भारत के सांठगांठ के ख़िलाफ़ मज़दूरों को शिक्षित करने के लिए स्टालिनवादी नेताओं ने कुछ भी नहीं किया और न तो कोई नज़रिया पेश किया कि वे कैसे इसका विरोध करें.
जब वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट के रिपोर्टरों ने भारत के दूसरे सबसे बड़े कंटेनर पोर्ट, चेन्नई बंदरगाह पर कुछ गोदी मज़दूरों से बात की तो उन्होंने इसराइली युद्ध सामग्री पर पाबंदी लगाने का समर्थन किया. हालांकि उन्होंने कहा कि सीटू और बंदरगाह की अन्य यूनियनों ने ग़ज़ा जनसंहार के बारे में जानकारी देने या इसराइली खेपों को रोकने की किसी योजना के बारे में उनके बीच कोई भी अभियान नहीं चलाया. उनके बातचीत में ये भी पता चला कि डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई ने ठेका मज़दूरों की सुरक्षा के लिए भी कोई कोशिश नहीं की और ना ही उन्हें ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों के पक्ष में एकजुट करने की कोशिश की, जबकि कुल मज़दूरों में उनकी संख्या काफ़ी है. ये दिखाता है कि डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई के स्टालिनवादी नेताओं के लिए इसराइली युद्ध सामग्री के खेप को रोकने की अपील एक छलावा और विरोध का दिखावा है.
पोर्ट वर्कर यूनियन के अध्यक्ष नागेंद्र राव ने कहा कि इसराइल को हथियार ले जाने वाले किसी पोत के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं आई है. हालांकि, हाल के दिनों में ऐसी ख़बरें आई हैं कि भारत से इसराइल को मध्यम ऊंचाई पर लंबी उड़ान भरने में सक्षम 20 से अधिक मानव रहित विमान (यूएवी) हर्मीस 900 को बेचा गया है.
हर्मीस 900 इसराइल द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले चार 'किलर ड्रोन्स' में से एक है, जिसका निर्माण हैदराबाद में अडानी-एलबित एडवांस्ड सिस्टम्स इंडिया लिमिटेड की फ़ैक्ट्री में होता है. यह कंपनी इसराइली हथियार निर्माता एलबित सिस्टम्स और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते उद्योगपति दोस्त और भारत के दूसरे सबसे बड़े अरबपति गौतम अडानी के अडानी ग्रुप का ज्वाइंट वेंचर है. हथियारों की बिक्री की पहली ख़बर दो फ़रवरी को शेफर्ड मीडिया के हवाले से आई. लेकिन न तो इस बिक्री पर भारत या इसराइल की ओर से कोई टिप्पणी आई. इस बिक्री की पुष्टि, अडानी ग्रुप में एक सूत्र के हवाले से अनौपचारिक रूप से द वायर ने की.
अडानी-एलबित निर्माण इकाई भारत और इसराइल के बीच सैन्य और रक्षा साझेदारी की बढ़ती करीबी का हिस्सा है. भारत इसराइली निर्मित हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार बन गया है और हर साल क़रीब एक अरब डॉलर के हथियार खरीदता है.
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) के मुताबिक, मोदी और उनकी हिंदू बर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी के पहले कार्यकाल 2014-2019 के दौरान भारत को होने वाले इसराइली हथियारों की आपूर्ति में 175 प्रतिशत का उछाल आया.
साल 2017 में इसराइली हथियार उद्योग ने एक भारतीय इंजीनियरिंग और कंस्ट्रक्शन फ़र्म पुंज लॉयड के साथ मिलकर भारत की पहली निजी क्षेत्र की हथियार फ़ैक्ट्री मध्य प्रदेश के मालनपुर में लगाई. इस फ़ैक्ट्री में भारतीय सेना और स्पेशल फ़ोर्सेस के लिए कई तरह के अत्याधुनिक हथियार बनाए जाते हैं जैसे यूज़ी सब मशीनगन आदि. उसी साल एक अन्य इसराइली भारतीय ज्वाइंट वेंचर कल्यानी रफ़ाएल एडवांस्ड सिस्टम्स ने भारत का पहला निजी क्षेत्र का मिसाइल प्लांट खोला, जहां भारतीय सेना के लिए स्पाइक एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल का निर्माण होता है.
बीते सात अक्टूबर को फ़लस्तीनी जनउभार की निंदा करने में धुर दक्षिणपंथी नेतन्याहू सरकार के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने में सबसे आगे रहने वाले दुनिया के नेताओं में मोदी भी रहे हैं. सोमाली समुद्री लुटेरों से लड़ाई का बहाना लेकर नई दिल्ली सरकार ने अदन की खाड़ी में दो युद्धपोत और अरब सागर में 10 युद्धपोत तैनात किए हैं. यह सब तब किया गया जब इसराइली जनसंहार जारी है और पूरे पश्चिम एशिया में अमेरिका एक व्यापक संघर्ष को भड़काने में लगा हुआ है.
इसराइल के जनसंहारक युद्ध के प्रति मोदी का खुला समर्थन दरअसल इसराइल के साथ भारत की सैन्य-रणनीतिक करीबी साझेदारी से भी समझा जा सकता है, जिसे और बढ़ाने में उन्होंने कड़ी मेहनत की है. हालांकि फ़लस्तीनियों पर इसराइली युद्ध के लिए भारत के पक्के समर्थन के पीछे सबसे बड़ा कारण है अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ नई दिल्ली की 'वैश्विक रणनीतिक साझेदारी', जो इसराइल को इस क्षेत्र में अपनी मुख्य आक्रामक चौकी मानता है. अपने पहले की कांग्रेस पार्टी नीत सरकारों के नक्शे कदम पर ही चलते हुए मोदी सरकार ने भारत को, चीन के साथ युद्ध की तैयारी और उसे रणनीतिक रूप से घेरने के वॉशिंगटन के अभियान में अग्रिम मोर्चा वाले देश के रूप में रूपांतरित कर दिया है.
ग़ज़ा में जनसंहार के ख़िलाफ़ संघर्ष में मज़दूरों को लामबंद करने से डब्ल्यूटीडब्ल्यूएफ़आई के इनकार को सीपीएम की स्टालिनवादी राजनीति से अलग नहीं देखा जा सकता, जिससे कि वो जुड़ा हुआ है. नवंबर में सीपीएम और सीपीएम नीत वाम मोर्चा को, ग़ज़ा में हो रहे इसराइली जनसंहार के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग में व्यापक गुस्से के कारण ही कुछ प्रदर्शन आयोजित करने पड़े थे. हालाँकि, उन्होंने मोदी सरकार पर इसराइल और ग़ज़ा पर उसके जनसंहार से दूरी बनाने के लिए दबाव डालने और संयुक्त राष्ट्र और कूटनीतिक माध्यमों से फ़लस्तीन-इज़राइल संघर्ष में 'द्वि-राज्य समाधान' के मार्फत पश्चिम एशिया में 'शांति' सुनिश्चित करने के लिए काम करने का दिवालिया नज़रिया ही इन विरोध प्रदर्शनों पर थोप दिया.
इसके बाद सीपीएम ने ग़ज़ा पर विरोध प्रदर्शनों को रोक दिया, ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि वो अपने केंद्रीय राजनीतिक उद्देश्यों से भटक न जाए, यानी, मोदी और भाजपा के विरोध में व्यापक मज़दूर वर्ग को आगामी लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के पीछे लामबंद करना. हाल फिलहाल तक सरकार में भारतीय बुर्जुआज़ी की पसंदीदा पार्टी रही कांग्रेस की अगुवाई में इंडिया गठबंधन भारत-अमेरिकी साझेदारी और 'निवेश समर्थक नीतियों' के पक्के समर्थन को लेकर बीजेपी से कहीं भी कमतर नहीं है. इसके घटक दलों का भी मोदी के धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्व (हिंदू राष्ट्रवादी) सहयोगियों के साथ तालमेल बिठाने और उनके साथ सांठगांठ करने का एक लंबा इतिहास रहा है.
दशकों तक सीपीएम ने भारतीय सत्ताधारी वर्ग में वामपंथी धड़े के रूप में किया किया है. और उसने श्रमिकों और युवाओं के बीच गु्स्से को ग़रीब फ़लस्तीनियों के दमन, बेदखली और अब जनसंहार को पूंजीवादी राजनीति और कूटनीति के प्रतिक्रियावादी ढांचे के भीतर सीमित रखने की कोशिश की है. एक तरफ़ सीटू और सीपीएम के नेता कुछ मौकों पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ नारे लगाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ उन्होंने भारत-अमेरिकी सैन्य और रक्षा गठजोड़ के दक्षिण एशिया और दुनिया के लिए गंभीर ख़तरे से मज़दूर वर्ग को अगाह करने के लिए कुछ नहीं किया. युद्ध और साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था के विरोध में एक अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के नेतृत्व वाले युद्ध-विरोधी आंदोलन का निर्माण करने की तो दूर की बात है.
ग़ज़ा में जनसंहार को रोकने के लिए साम्राज्यवादियों और भारतीय पूंजीपति वर्ग से भारतीय स्टालिनवादियों की दयनीय और प्रतिक्रियावादी अपील के विरोध में, जिसमें वे सभी शामिल हैं, वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट इस बात पर जोर देती है कि इसे केवल अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग की लामबंदी के माध्यम से ही हासिल किया जा सकता है.
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग के हिस्से के रूप में, भारतीय मज़दूरों को इसराइल के लिए नियत सभी संभावित सैन्य उपकरणों की आपूर्ति और उत्पादन को रोकने के लिए हड़ताल और अन्य कार्रवाइयों का आयोजन करना चाहिए. इसे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक आम हड़ताल की लड़ाई और साम्राज्यवादी युद्ध के ख़िलाफ़ लड़ाई को पूंजीवादी खर्च कटौती और उनके सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के ख़िलाफ़ दुनिया भर में मेहनतकश लोगों के बढ़ते जन उभार के साथ जोड़ने के संघर्ष से जोड़ा जाना चाहिए.
अमेरिका समर्थित इलराइली हमले के ख़िलाफ़ संघर्ष का दायरा आवश्यक रूप से अंतर्राष्ट्रीय है. इसे छेड़ने के लिए, श्रमिकों के संघर्ष को यूनियनों की नौकरशाही के दमघोंटू राष्ट्रीय ढांचे के भीतर सीमित नहीं रखा जा सकता है. मज़दूरों को युद्ध, पूंजीवादी प्रतिक्रिया और पुलिस राज के ख़िलाफ़ विरोध का तालमेल करने और पूंजीवाद और साम्राज्यवादी युद्ध के ख़िलाफ़ समाजवाद के लिए एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन में अपने संघर्षों को एकजुट करने के लिए रैंक-एंड-फाइल समितियों के अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर गठबंधन से संबद्ध रैंक-एंड-फ़इल समितियों का निर्माण करना चाहिए.