यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है, Inequality in India greater today than at the height of the British Raj जो मूलतः 26 अप्रैल 2024 को प्रकाशित हुआ था I
एक तरफ़ जहां भारत की करोड़ों मज़दूर और ग्रामीण ग़रीब दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते हैं और जहां क़रीब 20 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हैं, वहीं भारत के 1% अमीरों की दौलत दुनिया में सबसे तेज़ रफ़्तार से बढ़ी है।
पिछले महीने 'इनकम एंड वेल्थ इनइक्वालिटी इन इंडिया 1922-2023' शीर्षक से प्रकाशित, वर्ल्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस पेपर ऑन इंडिया के अनुसार, 'भारत की शीर्ष 1% आबादी ने दुनिया में सबसे गैरबराबरी समाज माने जाने वाले देशों के मुकाबले, राष्ट्रीय आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा इकट्ठा किया है। इन देशों में दक्षिण अफ़्रीका, ब्राज़ील और अमेरिका भी शामिल हैं।'
इस रिपोर्ट को वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब (डब्ल्यूआईएल) के आर्थिक विशेषज्ञ नितिन कुमार भारती, लुकास चांसेल, थॉमस पिकेटी और अनमोल सोमांची ने लिखा है। इसमें कहा गया है कि पिछले तीन दशकों में भारत के पूंजीवादी विकास की लगभग पूरी की पूरी मलाई भारतीय पूंजीपतियों ने हड़प ली है, जबकि आबादी का एक बड़ा हिस्सा गंदगी, अभाव और भयंकर आर्थिक असुरक्षा में फंस गया है।
यह पूरे राजनीतिक तंत्र और हर स्तर की सरकारों पर एक बदनुमा दाग है- उन केंद्रीय सरकारों पर जिनकी अगुवाई, भारत के बड़े उद्योगपतियों की चहेती पार्टियों, कांग्रेस पार्टी और हिंदू बर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने की है और बीजेपी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 से ही सत्ता में है।
जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, रिपोर्ट में पाया गया है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माने जाने वाले भारत में आर्थिक ग़ैरबराबरी ब्रिटिश राज के ज़माने से भी अधिक हो चुकी है, जिसने ब्रिटिश पूंजीपतियों के लाभ के लिए और ब्रिटिश साम्राज्यवादी युद्धों के लिए भारत को व्यवस्थित रूप से लूटा था।
भारत की 1% आबादी या 92 लाख 23 हज़ार 448 लोगों के पास 2022-23 में राष्ट्रीय आमदनी का 22.6 प्रतिशत जबकि राष्ट्रीय संपत्ति का 40.1 प्रतिशत था। इसकी तुलना में, आबादी का निचला 50 प्रतिशत या कहें 46.1 करोड़ से अधिक लोगों की कुल आमदनी राष्ट्रीय आमदनी का 27.3 प्रतिशत थी। संपत्ति में हिस्सेदारी के मामले में, इस 50 प्रतिशत आबादी के पास देश की संपत्ति में सिर्फ 6.4 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी, जबकि मध्य की 40 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति में हिस्सेदारी 28.6 प्रतिशत थी।
आमदनी के बारे में इस भयानक ग़ैरबराबरी की एक झलक देने के लिए रिपोर्ट में कहा गया है कि, 'देश के शीर्ष 1% लोगों की औसत आमदनी 53 लाख रुपये (63,580 डॉलर) है, जोकि औसत राष्ट्रीय आमदनी 2.3 लाख रुपये से 23 गुना अधिक है। निचले 50 प्रतिशत और मध्य के 40 प्रतिशत आबादी की औसत आय क्रमशः 71,000 रुपये (853 डॉलर) या राष्ट्रीय औसत का 0.3 गुना और 1,65,000 रुपये या राष्ट्रीय औसत का 0.7 गुना थी। वितरण के शीर्ष पर बैठे 10,000 लोग (92 करोड़ भारतीय वयस्कों में से) औसतन 48 करोड़ रुपये (57 लाख डॉलर या औसत भारतीयों के मुकाबले 2,069 गुना) कमाते हैं। ये समझने के लिए कि वितरण कितना ग़ैरबराबरी भरा है, भारत में औसत आमदनी कमाने के लिए एक व्यक्ति को क़रीब 90वें प्रतिशतक (परसेंटाइल) पर होना होगा।'
इस रिपोर्ट में पेश किए गए आंकड़े कुछ इस प्रकार हैंः
- 'फ़ोर्ब्स बिलियनेयर रैंकिंग के अनुसार, मार्केट एक्सचेंज रेट (एमईआर) में एक अरब डॉलर से अधिक कुल संपत्ति रखने वाले भारतीयों की संख्या 1991, 2011 और 2022 में क्रमशः 1, 51 और 162 थी। सिर्फ यही नहीं, भारत की कुल राष्ट्रीय आमदनी में इन लोगों की कुल संपत्ति 1991 में 1% से बढ़कर 2022 में 25 प्रतिशत हो गई थी।' दूसरे शब्दों में भारत के 162 सबसे अमीर लोगों का भारत की कुल राष्ट्रीय आमदनी के एक चौथाई हिस्से पर कब्ज़ा है।
- “2022-23 में 22.6 प्रतिशत राष्ट्रीय आमदनी सिर्फ 1% लोगों की जेब में गई, यह वृद्धि 1922 के बाद से रिकॉर्ड स्तर पर है, यहां तक कि औपनिवेशिक शासन में युद्ध के दौरान से भी यह अधिक है। 2022-23 में इन 1% लोगों की संपत्ति 40.1% थी, जोकि 1961 से बाद से सबसे उच्च स्तर पर है।“
- “फ़ोर्ब्स की अमीरों की वार्षिक सूची के अनुसार, वास्तविक अर्थों में 2014 से 2022 के बीच अरबपति भारतीयों (अमेरिकी डॉलर में) की कुल संपत्ति में 280% का इजाफ़ा हुआ जोकि इसी दौरान राष्ट्रीय आमदनी में हुई वृद्धि दर, 27.8% का 10 गुना है.“ जिस कालखंड की यहां बात हो रही है, वो मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार के आठ सालों का कार्यकाल है, जो बताता है कि इसकी निवेश समर्थक नीतियों ने मज़दूरों और ग्रामीण मेहनतकशों की क़ीमत पर सुपर रिच (अमीरों में भी सबसे अमीर) को बेशुमार फ़ायदा पहुंचाया।
रिपोर्ट में पाया गया है कि 1961 में भारत के शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी की संपत्ति का हिस्सा 45 प्रतिशत था। इसके बाद के दो दशकों में इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया, क्योंकि यह समय 'समाजवादी नीतियों' के लागू होने का चरम समय था, जिसने संपत्ति के केंद्रीयकरण को 'कमोबेश स्थिर बनाए रखा।' रिपोर्ट के विशेषीकरण से उलट, इस अवधि में कांग्रेस के नेतृत्व वाली भारत सरकारों द्वारा लागू की गई आर्थिक नीतियों का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं था। ये राष्ट्रीय स्तर पर लागू की जाने वाली पूंजीवादी नीतियां थीं जिसने मुख्य उद्योगों में कुछ बड़े कार्पोरेशनों पर सरकारी एकाधिकार बनाए रखा और विदेशी पूंजी के प्रवेश पर कड़े प्रतिबंध लगाए रखा। इन नीतियों ने आबादी की एक विशाल बहुसंख्या की क़ीमत पर चंद सुपर रिच अभिजात लोगों को बढ़ावा देने का काम किया। इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि इस अवधि में शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 45% हिस्सा था।
हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार, 1991 में हुए निवेशवादी/ बाज़ारवादी सुधारों के शुरू होने के बाद ही भारत की सामाजिक ग़ैरबराबरी में तेजी से वृद्धि होनी शुरू हुई थी। इन सुधारों का मकसद अंतरराष्ट्रीय पूंजी को आकर्षित करना और भारत को अमेरिका की अगुवाई वाले वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के साथ पूरी तरह से नत्थी करना था। महज तीन दशक बाद ही 2022 में, शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की राष्ट्रीय संपत्ति में हिस्सेदारी बढ़कर 63% पहुंच गई थी। यह प्रभावी रूप से दिखाता है कि यह 1991 के बाद से कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों द्वारा लागू की गई 'खुली' आर्थिक नीतियों के प्रमुख लाभार्थी भारतीय पूंजीपति ही थे।
यह रिपोर्ट, संपत्ति को लेकर बढ़ती ग़ैरबराबरी की प्रक्रिया में एक और कारक की ओर ध्यान दिलाती हैः 'शेयर बाज़ार में उछाल (जीडीपी के % में) इस बात का सबूत है कि संपत्ति का पहले से अधिक वित्तीयकरण हुआ है।“ इसका उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है: 'सेंसेक्स (एसएंडपी बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज सेंसिटिव इंडेक्स) बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 30 कंपनियों का एक स्टॉक मार्केट इंडेक्स है, जो 1990 और 2023 के बीच 7300% बढ़ गया।' यह इस बात को उजागर करता है कि दुनिया में अपने जैसे अरबपतियों की तरह ही इन अरबपतियों ने शेयर बाज़ार में सट्टेबाज़ी और सार्वजनिक कार्पोरेशन (पब्लिक सेक्टर यूनिट्स-पीएसयू) के निजीकरण से भारी मात्रा में अपनी जेबें भरीं, जबकि उन्होंने मुश्किल से ही रोज़गार सृजन या कुछ भी उपयोगी चीज का उत्पादन किया।
भारत के डॉलर अरबपतियों की सूची मोदी सरकार की मज़दूर वर्ग विरोधी नीतियों के प्रभाव को ही दिखाती है। हुरुन ग्लोबल रिच लिस्ट के अनुसार, 2014 में जब मोदी पहली बार सत्ता में आए, भारत में डॉलर अरबपतियों की संख्या 70 थी। आज यह संख्या 271 पहुंच चुकी है, जिनकी संयुक्त संपत्ति 1 ट्रिलियन डॉलर है। मोदी के कारपोरेट समर्थक नीतियों के सबसे बड़े लाभार्थी मुकेश अंबानी जोकि आज एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति हैं, उन्होंने अपनी दौलत को 2014 में 18 अरब डॉलर से बढ़ाकर 115 अरब डॉलर कर लिया है।
हुरुन ग्लोबल रिच लिस्ट के अनुसार, भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई ने, अरबपतियों के मामले में 2024 में 92 अरबपतियों के साथ, शांघाई (87 अरबपति) को भी भी पीछे छोड़ दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल की सूची में मुंबई पहली बार दुनिया के शीर्ष तीन अरबपतियों के गृह-शहर की श्रेणी में शामिल हुआ।
'इनकम एंड वेल्थ इनइक्वालिटी इन इंडिया 1922-2023: द राइज़ ऑफ़ बिलियनेयर राज' नाम से आई रिपोर्ट टिप्पणी करती है कि: “आधुनिक भारतीय पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले बिलियनेयर राज आज के समय में, औपनिवेशिक ताक़तों के नेतृत्व वाले ब्रिटिश राज से भी अधिक ग़ैरबरारी वाला है।“ इसके बाद यह रिपोर्ट पूंजीवादी अभिजात वर्ग को चेतावनी देती है: 'यह साफ़ नहीं है कि बिना बड़े सामाजिक बदलाव और राजनीतिक उथल पुथल के इस तरह की गैरबराबरी का स्तर कितने लंबे समय तक टिका रह सकता है।'
फिर वे इस तरह के सामाजिक विस्फोट को रोकने के मकसद से कुछ बुज़दिली भरे सुधारों को लागू करने का प्रस्ताव करते हैं: “पिकेटी और उनके सह लेखक लिखते हैं कि आमदनी और संपत्ति की ग़ैरबराबरी अपने आप कम हो जाएगी, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि इन पर नियंत्रण नीति के द्वारा ही रखा जा सकता है।“ रिपोर्ट, भारतीय अरबपतियों-खरबपतियों पर 'सुपर टैक्स' लगाने का सुझाव देती है, इसके साथ ही साथ टैक्स के ढांचे को पुनर्गठित करने का भी सुझाव है जिसमें आमदनी और संपत्ति दोनों शामिल हैं, ताकि 'शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सार्वजनिक आधारभूत ढांचे में बड़े निवेश को फंड किया जा सके।'
न तो मोदी और ना ही कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां, जोकि सभी भारत के लुटेरे सत्ताधारी अभिजात वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, शायद ही इस तरह की अपीलों पर कान देंगीं। इससे उलट वे छोटे कॉर्पोरेट और वित्तीय अभिजात वर्ग को और अधिक दौलतमंद बनाने, मज़दूरों और ग्रामीण ग़रीबों को और ग़रीब बनाने के लिए हर संभव उपाय तलाशेंगी। वे करोड़ों भारतीय मज़दूर वर्ग और उत्पीड़ितों के प्रति कट्टर शत्रु हैं, जैसा कि कोविड-19 महामारी के दौरान साफ़ तौर पर दिखा भी। सत्ताधारी वर्ग की, 'जीवन के ऊपर मुनाफ़ा' नीति ने 50 से 60 लाख भारतीयों की बलि दे दी, क्योंकि भारतीय और विदेशी पूंजी के मुनाफ़े की रक्षा करने के लिए वायरस को बेलगाम फैलने दिया गया था। सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर उपाय अपनाने से मोदी के इनकार का ही नतीजा था कि संक्रमण और मौत के चरम अवधि वाले समय में भारत का स्वास्थ्य तंत्र बैठ गया था।
चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवादी युद्ध की तैयारियों में देश को अग्रणी राज्य बनाने के लिए अरबों रुपयों के खर्च का भारत का सत्ताधारी अभिजात वर्ग पूरी तरह से समर्थन करता है। जबकि लाखों लोग दो जून की रोटी कमाने के लिए संघर्ष करते हैं और रोकी जा सकने वाली बीमारियों से मरते हैं, उधर भारत मौत और विनाश के अत्याधुनिक हथियारों पर खजाना लुटाता है।
इस तरह के बर्बर सामाजिक तंत्र का ख़ात्मा होना चाहिए और सुपर रिच के पास जमा विशाल दौलत को ज़ब्त करना चाहिए। युद्ध पर अरबों खर्च करने और कॉर्पोरेट घरानों को समृद्ध करने के बजाय, गरीब मज़दूरों और ग्रामीण गरीबों की स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और बुनियादी सामाजिक सेवाओं की सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अरबों रुपयों का निवेश किया जाना चाहिए। मज़दूरों की सत्ता स्थापित करने के माध्यम से समाज के समाजवादी परिवर्तन के लिए एक संघर्ष की आवश्यकता है।