यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है, The Goat Life: Indian workers victims of slave labor in America’s great friend, Saudi Arabia जो मूलतः 15 सितम्बर 2024 को प्रकाशित हुआ था I
'आदुजीविथम' (द गोट लाइफ़) फ़िल्म को भारतीय फ़िल्म निर्माता ब्लेसी इपे थॉमस (1963 में जन्म, ब्लेसी के रूप से विख्यात) ने लिखा और निर्देशित किया है। इसे 2008 में आए केरल के मलयाली लेखक बेन्नी डैनियल (बेन्यामिन) के उपन्यास गोट डेज़ से रुपांतरित किया गया था। मलयालम भारत की 22 मान्यताप्राप्त भाषाओं में से एक है।
यह उपन्यास और फ़िल्म, केरल के एक मलयाली व्यक्ति नजीब मुहम्मद की जीवन की सच्ची घटना से प्रेरित है, जिन्हें 1990 के दशक की शुरुआत में सऊदी अरब में बकरियों के चरवाहे के रूप में कई दिनों तक ग़ुलाम बनाए रखा गया था। उपन्यास और फ़िल्म दोनों ही सऊदी अरब में प्रतिबंधित हैं। यह फ़िल्म नेटफ़्लिक्स पर मौजूद है।
'आदुजीविथम' इतिहास में तीसरी सबसे अधिक कमाई करने वाली मलयाली फ़िल्म है और 2024 में सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फ़िल्मों में से एक है। यह उपन्यास इस बात को भी दर्ज करता है कि मलयाली साहित्य में पहली बार किसी एक लेखक ने खाड़ी के देशों में जाने वाले प्रवासी मज़दूरों की तकलीफ़ को अपनी कहानी का मुख्य कथ्य बनाया है।
हालांकि यह कहानी सऊदी अरब की है, लेकिन स्वाभाविक कारणों से प्रोडक्शन टीम को उस देश में शूटिंग करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था।
फ़िल्म का मुख्य नायक नजीब (पृथ्वीराज सुकुमारन) सऊदी अरब में नौकरी हासिल करने का एक मौका पाने के लिए अपनी जीवन भर की कमाई ख़र्च कर देता है। नजीब को वीज़ा दिलाने वाले दलाल ने उन्हें और उनके साथी हकीम (के.आर. गोकुल) को बताया कि खाड़ी देश में कुछ महीने काम करके ही वे अच्चा ख़ासा पैसा बना सकते हैं। दोनों ही व्यक्ति ग़रीब तटीय गांव से आते हैं।
इसके अलावा, नजीब की पत्नी, सायनू (अमाला पौल) गर्भवती है। पैसे की सख़्त ज़रूरत है। (वास्तविक जीवन में मुहम्मद को सऊदी अरब में एक ग्रॉसरी स्टोर में सेल्स मैन के तौर पर काम पर रखने का वादा किया गया था।)
न तो नजीब और ना ही हकीम अरबी बोल पाते हैं और जैसे ही उस देश में वो उतरते हैं, उन्हें जाल में फांस लिया जाता है। हवाई अड्डे पर एक गुस्सैल और बात बात पर चिल्लाने वाला कफ़ील (तालिब अल बलूशी) उनके हाथों से पासपोर्ट छीन लेता है और उन्हें ज़बरिया अपने मिनी ट्रक के पीछे बैठने के मजबूर करता है और जब भी वो विरोध करते हैं, उनके साथ बुरा बर्ताव करता है। मूसलाधार बारिश भी इन दुखों को कम नहीं करती। दोनों ही अरब के कठोर रेगिस्तान (9 लाख वर्ग मील में फैले) के एक दूरदराज़ इलाक़े में बकरियों के एक फ़ॉर्म में क़ैद कर दिए जाते हैं, बिना किसी भुगतान या वेतन के।
इन ग़ुलामी के दिनों में अक्सर ही उनके साथ मारपीट होती है और भूखों रखा जाता है। और नजीब जिन जानवरों की देखभाल करता है, उसका हुलिया भी उतना ही अमानवीय बन जाता है। इस दरम्यान उसे रह रह कर अपनी मातृभूमि की घनी हरियाली और सायनू के साथ गुजारे भावुक पलों की याद आती है और इन्हीं के सहारे वो ज़िंदा रहता है।
इस भयानक और लगभग मरणांतक क़ैद के कुछ सालों में बुरे बर्ताव और मारपीट के कारण नजीब का शरीर विकृत हो जाता है और तभी उसकी हकीम से दोबारा मुलाक़ात होती है। हकीम एक अफ़्रीकी प्रवासी इब्राहिम कादरी (सोमालिया का बकरी चरवाहा) की मदद से क़ैद से फ़रार होने की योजना बना रहा है। यह क़िरदार जिम्मी जीन-लुईस ने निभाया है। रेगिस्तान में अपने सबसे घातक दुश्मन सूरज की स्थिति का पीछा करते हुए ये तीनों ज़िंदा बचे रहने की कठिन चुनौती का सामना करते हैं।
इस फ़िल्म के अंत में लिखा आता हैः 'यह केवल नजीब की कहानी नहीं है। आजीविका के लिए अपना देश और घर छोड़कर आए हज़ारों उन लोगों की दुख तकलीफ़ों की भी यही कहानी है जिन्होंने इस रेगिस्तान में अपनी जान गंवा दी।'
इस फ़िल्म को बनाने के लिए एक दशक से भी लंबे समय से अपने संघर्ष में निर्देशक ब्लेसी ने बहुत सारी राजनीतिक और संसाधनों की मुश्किलों को झेला और अंततः इस उल्लेखनीय कहानी को हैरान करने वाले दृश्यों और प्रोडक्शन के ऊंचे मानदंडों के साथ पर्दे पर ले आए। यह फ़िल्म वही है जो एक्टर सुकुमारन ने कहा है कि, 'भाषा न होने से एक बड़ी स्वतंत्रता भी थी', क्योंकि फ़िल्म में केवल 20 प्रतिशत ही डायलॉग हैं। फ़िल्म के मूल संगीत और गाने ए.आर. रहमान द्वारा कंपोज़ किए गए हैं, जो इंसानी आवाज़ की कमी को और गहरा करते हैं और उसकी कमी को पूरा भी करते हैं।
यह दिल को छू देने वाली फ़िल्म है। हालांकि प्रस्तुति ख़ामियों से अछूती नहीं है, निर्देशन में मेलोड्रामा और दिल को झिंझोड़ देने वाला पुट दिखता है, लेकिन हमारे समय की सबसे भयानक नाइंसाफ़ी और दुख तकलीफ़ को फ़िल्म निर्माताओं ने जिस तरह से साहसिक तरीक़े से सामने लाने की कोशिश की है, इसके लिए वे पूरे श्रेय के हक़दार हैं।
अपने विभिन्न रूपों में आधुनिक पूंजीवादी वेतन दासता, आज भी इस ग्रह पर सामंती, अर्द्धसामंती और दासता वाले श्रम संबंधों में जीवित है। इसी हफ़्ते न्यूयॉर्क टाइम्स ने दक्षिणपूर्व एशिया में 'फर्जी फ़ॉर्मों' में जबरिया श्रम के व्यापक इस्तेमाल पर एक स्टोरी की है। इसमें इंटरनेट धांधली का मामला शामिल है, जिसमें 'आम तौर पर मानव तस्करी के द्वारा लाए गए वर्करों को भयंकर मारपीट, बिजली के झटके या इससे भी बुरे बर्ताव के डर से काम करने को मजबूर किया जाता है।'
'आदुजीविथम' मध्ययुगीन यातना और प्रथाओं का चित्रण है, और एक समर्पित कलाकारों की टीम ज़िंदगी की इस बर्बर सामाजिक सच्चाई को सामने ले आती है, जोकि आधुनिक ज़माने की ग़ुलामी का स्पष्ट एहसास दिलाता है।
2023 ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स (जीएसआई) के मुताबिक़, यह मौजूदा सऊदी अरब में काम के हालात का एक काल्पनिक चित्रण है। सऊदी अरब में किसी भी अरब देश तुलना में सबसे अधिक और दुनिया में चौथे नंबर पर गुलामी वाला श्रम कराया जाता है। कफ़ाला के तहत लाए गए मज़दूरों से उसी तरह काम लिया जाता है जैसे गुजरे ज़माने में ग़ुलामों से कराया जाता था, और ये वर्कर भी आम तौर पर दुनिया के उन्हीं हिस्सों से आते हैं, जहां से पहले उन्हें लाया जाता था।
जीएसआई की रिपोर्ट के अनुसारः
अगर कोई वर्कर नौकरी छोड़ता है, हड़ताल करता है या उत्पीड़न के हालात से भागने की कोशिश करता है, तो वो कभी घर वापस नहीं लौट पाएगा। सिर पर लदे कर्ज़ और छोटी मोटी आमदनी पर एक एक पैसे के लिए निर्भर परिवार के साथ वर्कर फंस कर रह जाता है। कुशल वर्करों को भी बहुत ही मामूली काम करने पर मजबूर किया जाता है; महिला घरेलू वर्करों के साथ बदतमीज़ी और बुरा बर्ताव किया जाता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) में शरणार्थी और प्रवासी अधिकारों को लेकर शोध करने वाली नादिया हर्दमान ने कहा, 'सऊदी अरब दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक है, महामारी के बीच, महीनों तक प्रवासी मज़दूरों को बहुत अमानवीय हालात में क़ैद करके रखने का उसके पास कोई बहाना नहीं है।'
लोगों को ठूंस कर रखे जाने, टॉर्चर के आरोपों और ग़ैरक़ानूनी हत्याओं के वीडियो फ़ुटेज बहुत धक्का देने वाले हैं क्योंकि अमानवीय हालात की जांच करने और दोषियों को सज़ा दिलाने को लेकर प्रशासन कोई कार्यवाही करने को लेकर इच्छुक नहीं दिखता है।
अक्टूबर 2020 में आई एचआरडब्लयू की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि सऊदी अरब में क़रीब एक करोड़ विदेशी कामगार हैं।
इस ढर्रे में कोई कमी नहीं आ रही है। बल्कि, इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आईएलओ) की रिपोर्ट कहती है कि प्राइवेट अर्थव्यवस्था में बंधुआ मज़दूरी से अमेरिका को हर साल ग़ैरक़ानूनी रूप से 236 अरब डॉलर का मुनाफ़ा होता है। 2014 के बाद बंधुआ मज़दूरी से होने वाला कुल मुनाफ़ा 64 अरब डॉलर (37 प्रतिशत) बढ़ गया है। यह एक नाटकीय वृद्धि है, जोकि बंधुआ मज़दूरी में धेकेले जाने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी और पीड़ितों के शोषण से मिलने वाले ऊंचे मुनाफ़े की वजह से हुई है।
आईओलओ रिपोर्ट, मुनाफ़ा और ग़रीबीः बंधुआ मज़दूरी के अर्थशास्त्र के अनुमान के अनुसार, मानव तस्करी करने वाले और अपराधी हर पीड़ित से क़रीब 10,000 डॉलर उगाहते हैं, जबकि एक दशक पहले यह राशि 8,269 डॉलर (महंगाई को जोड़ते हुए) हुआ करती थी।
बंधुआ मज़दूरी से जो सालाना मुनाफ़ा होता है वो सबसे अधिक यूरोप और मध्य एशिया में होता है (84 अरब डॉलर), इसके बाद नंबर आता है एशिया और प्रशांत क्षेत्र का (18 अरब डॉलर), फिर अमेरिका (52 अरब डॉलर), अफ़्रीका (20 अरब डॉलर), और अरब देशों (18 अरब डॉलर) का।
सऊदी अरब में आधुनिक ज़माने की ग़ुलामी जारी है क्योंकि यह पूंजीवादी अर्थशास्त्र के लिए ज़रूरी है। 'लोकतंत्र' के पाखंड के नाम पर पूरी दुनिया में सैन्य अभियान चलाने के बावजूद अमेरिका ईंधन के क्षेत्र में अपने दबदबे और वैश्विक दादागीरी की चाहत में सऊदी अरब को गले लगाता है। इस खाड़ी के देश में एक तानाशाह- सम्राट का शासन है जो हत्या, क्रूर घरेलू दमन और जनसंहार वाले युद्ध का दूसरा नाम बन चुका है।
अमेरिका से उसका साम्राज्यवादी बॉस वाला रिश्ता है। जैसा कि डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस ने 2022 के एक लेख में लिखा थाः
राष्ट्रपति जो बाइडन और सऊदी क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान के बीच मीटिंग में, बाइडन ही गॉडफ़ादर हैं जो बिन सलमान के बहुत सारे अपराधों के दोष को मुश्किल से ही याद रख पाते हैं। और वो एक सैन्य ख़ुफ़िया तंत्र के प्रमुख हैं, जो बिन सलमान की तरह ही, क्राउन प्रिंस के जन्म लेने से पहले से वहशी तरीक़े से हत्याएं कर रहा था।
'आदुजीविथम', अपनी ख़ामियों के साथ, एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है।