यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल लेख का है The killing of Pakistani workers and the dead end of Baloch ethno-separatist nationalism जो मूलतः16 सितम्बर 2024 को प्रकाशित हुआ थाI
बीते 26 अगस्त को पाकिस्तान के दक्षिण पश्चिम में स्थित बलोचिस्तान के पूरे प्रांत में एक के बाद हुए हमलों में 35 नागरिकों समेत 70 से अधिक लोग मारे गए। आधिकारिक रिपोर्टों के मुताबिक़, बलोच-राष्ट्रवादी अलगाववादियों द्वारा 10 ज़िलों को निशाना बनाया गया। उन्होंने सैन्य ठिकानों और पुलिस थानों पर हमला किया, रेलवे पटरियों और पुलों को उड़ा दिया, देश के अन्य हिस्सों से जोड़ने वाले प्रांत के हाईवे को ठप कर दिया और कोयला और राशन ले जा रहे ट्रकों को आग के हवाले कर दिया।
ख़ासकर घृणित और प्रतिक्रियावादी कार्रवाई में बलोच विद्रोहियों ने अंतरराज्यीय बस से पंजाब जाने वाले यात्रियों को मुसखैल में रोक लिया और यात्रियों के पहचान पत्र चेक किए और बलोची और ग़ैर बलोची लोगों को चुन चुन कर अलग कर दिया। इसके बाद उन्होंने 23 लोगों को गोली मार दी, जिनमें अधिकांश ग़रीब मज़दूर थे, जिन्हें पंजाबी या पश्तून समझकर उन्होंने निशाना बनाया। मरा हुआ छोड़े जाने के बाद इनमें से एक व्यक्ति ज़िंदा बच गया था। इसके अलावा कई पंजाबी ट्रक ड्राइवरों को भी गोली मार दी थी।
सेना के मीडिया विंग के अनुसार, बेला में दो आत्मघाती समेत इन हमलों में 14 सुरक्षाकर्मी मारे गए और जवाबी हमले में दो दर्जन विद्रोही मारे गए।
पाकिस्तान से बलोचिस्तान को अलग देश बनाए जाने की मांग के लिए लड़ने वाली बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) ने 26 अगस्त के इन हमलों की ज़िम्मेदारी ली है। बीएलए के फ़िदायीन मजीद ब्रिगेड द्वारा सोशल मीडिया पर किए गए पोस्ट में दावा किया गया था कि बेला में किए गए आत्मघाती धमाकों में से एक को तुरबल लॉ कॉलेज में पढ़ने वाली 23 साल की एक छात्रा माहेल बलोच ने अंजाम दिया था। फ़िदायीन मजीद ब्रिगेड मुख्य रूप से, पाकिस्तानी सुरक्षा बलों और चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर से संबंधित परियोजनाओं पर काम करने वाले चीनी कर्मचारियों के ख़िलाफ़ आत्मघाती हमले संगठित करता है।
पंजाबी और पश्तून वर्करों को निशाना बनाने का बलोच अलगाववादी विद्रोहियों का एक लंबा और ख़ूनी इतिहास रहा है, जिनका वे 'बाहरी' कहकर विरोध करते हैं।
हाल ही में हुई हिंसा की दो घटनाएं हुईंः 9 अप्रैल को विद्रोहियों ने क्वेटा ताफ़तान एन-40 हाईवे पर एक बस को रोका और ईरान के वीज़ा पर सफ़र कर रहे नौ पंजाबी यात्रियों की पहचान कर उन्हें नीचे उतारा, और फिर सभी को गोलियों से भून दिया। दूसरी घटना मई में हुई, जब ग्वादर में एक हेयर सैलून में काम करने वाले पांच पंजाबी लोगों को आधी रात को सोते हुए मार डाला।
बीएलए कई बलोची विद्रोही ग्रुपों में सबसे बड़ा और सबसे प्रमुख है, इनमें से कुछ ईरान के बलोच भाषी बहुल दक्षिणपूर्वी इलाक़े में मौजूद ग्रुपों के साथ जुड़े हुए हैं। इनमें बलोच नेशनल आर्मी (बीएनए) शामिल है, जिसका जन्म यूनाइटेड बलोच आर्मी (यूबीए) और बलोच रिपब्लिक आर्मी (बीआरए) के विलय से हुआ है।
पिछले दो दशकों से बलोचिस्तान पाकिस्तान के सैन्य बूटों के तले है।
जनता की लोकतांत्रिक और सामाजिक आकांक्षाओं के प्रति कोई प्रगतिशील कदम उठाने में नाकाम रहीं इस्लामाबाद की पिछली सरकारों और सेना ने, पाकिस्तान के इस सबसे ग़रीब प्रांत में बढ़ते जनआक्रोश को बर्बरता से दबाया है, जिसमें ज़बरदस्ती लोगों को ग़ायब करना, टॉर्चर करना और गैर न्यायिक हत्याएं शामिल हैं।
लोगों की जायज शिकायतों से निपटने के लिए इस्लामाबाद ने जिस बदले की भावना और क्रूरता का सहारा लिया है, उससे विभिन्न बलोची राष्ट्रवादी ग्रुपों और विद्रोह में बढ़ोत्तरी ही हुई है, जिसकी वजह से दोनों ओर से हिंसा की घटनाएं देखने को मिली हैं।
मौजूदा विद्रोह और बीएलए का विशिष्टतावादी, साम्राज्यवादी परस्त कार्यक्रम
अमेरिका समर्थित तानाशाह जनरल मुशर्रफ़ के शासन के दौरान 2004 में मौजूदा विद्रोहों की शुरुआत हुई थी। यह वही अमेरिकी सरकार थी, जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों की नव-औपनिवेशिक अफ़ग़ान जंग में केंद्रीय भूमिका निभा रही थी। 2006 में जब सेना ने जाने माने एक जनजातीय नेता और बलोचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री और गवर्नर रहे नवाब अकबर बुगती की हत्या कर दी तो यह विद्रोह और भड़क गया। 2005 में जब पाकिस्तान ने इस प्रांत को अधिक स्वायत्ता देने और नए सैन्य अड्डे के निर्माण पर रोक लगाने की मांग को ठुकरा दिया तो बुगती ने उसके ख़िलाफ़ हथियार उठा लिया था।
26 अगस्त को बुगती की मौत की 18वीं बरसी थी और इसी दिन बीएलए ने अबतक के सबसे बड़े और सबसे दुस्साहसी सैन्य अभियान को अंजाम दिया और सरकार और पाकिस्तानी सेना के शीर्ष नेतृत्व को बुरी तरह परेशान करके रख दिया।
बलोचिस्तान प्रांत देश के भूभाग का 44 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन यहां की आबादी 1.5 करोड़ है, यानी कुल आबादी के छह प्रतिशत से कुछ अधिक। यहां प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा है, जिसमें तांबा और कोयला, प्राकृतिक गैस शामिल है, जबकि इसकी सीमा अफ़ग़ानिस्तान और ईरान से लगती है।
बीएलए और बलोची अलगाववादी ग्रुपों ने प्रतिक्रियावादी पाकिस्तानी पूंजीपति वर्ग और इसकी सरकार के ख़िलाफ़ राष्ट्रवादी विद्रोह की एक परम्परा शुरू की है। पिछली तीन चौथाई सदी में पूंजीवादी राष्ट्रवादी अलगाववादी विद्रोहियों और सुरक्षा बलों के बीच लगातार हुई झड़पों में अनगिनत नागरिकों समेत दसियों हज़ार लोग मारे जा चुके हैं।
हालांकि, अपने उग्रवादी स्वरूप और अपने कई युवा सदस्यों के बलिदान के बावजूद, बलोची अलगाववादी आंदोलन एक प्रतिक्रियावादी अंधी गली ही है।
यह एक विशिष्टतावादी-बर्चस्ववादी कार्यक्रम है, वे पंजाबी मज़दूरों और 'ग़ैर बलोचियों' पर जानलेवा हमले करते हैं और यह खुले तौर पर साम्राज्यवाद परस्त है।
सालों से बलोची अलगाववादियों ने, वॉशिंगटन और उसके सहयोगियों का समर्थन हासिल करने की कोशिशें की हैं, ख़ासकर भारत से, जोकि पाकिस्तान का रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी है। चीन के ख़िलाफ़ हमलों को अंजाम देकर ये अलगाववादी खुद को चीन के ख़िलाफ़ भारत के पालतू हमलावर के रूप में पेश करते हैं और इस तरह वे उसका समर्थन हासिल करना चाहते हैं।
ये ऐसे हालात में हो रहा है जहां अमेरिका और इसके साम्राज्यवादी सहयोगियों ने दुनिया का फिर से बंटवारा करने के लिए एक वैश्विक जंग छेड़ दी है। यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ अमेरिका-नेटो द्वारा भड़काई गई जंग हो या ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों के ख़िलाफ़ इसराइली जनसंहार हो, जिसे साम्राज्यवादी शक्तियां शह दे रही हैं, और इन सबके बीच ईरान पर उन्होंने सैन्य और आर्थिक दबाव बढ़ा दिए हैं और चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका की सैन्य और रणनीतिक आक्रामकता को तेज़ कर दिया है। ये सारे मोर्चे इसी वैश्विक जंग का हिस्सा हैं।
बलूची जनता और दक्षिण एशिया के सभी मज़दूरों और मेहनतकशों के लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकार - जिसमें धर्म या जातीयता के निरपेक्ष इसके असंख्य लोगों के बीच वास्तविक समानता और साम्राज्यवादी उत्पीड़न से मुक्ति शामिल है - को पूंजीपति वर्ग के सभी धड़ों समेत उपमहाद्वीप के प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक आधारित राष्ट्र राज्य तंत्र के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की अगुवाई में समाजवादी क्रांति के मार्फ़त ही हासिल किया जा सकता है और हासिल होकर रहेगा।
बंटवारा और बलोची राष्ट्र का सवाल
बलोच पूंजीवादी-राष्ट्रवादी अलगाववादी आंदोलन, 1917 से 1948 के बीच दक्षिण एशिया को अपने आगोश में लेने वाले व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के दमन का, एक घृणित उत्पाद है। उस आंदोलन के क्रांतिकारी पहलुओं से डर कर और ख़ासकर मज़दूर वर्ग के बढ़ते जुझारूपन के कारण औपनिवेशिक पूंजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी धड़े ने औपनिवेशिक पूंजीवादी राज्य का नियंत्रण हासिल करने और साम्प्रदायिक आधार पर उप महाद्वीप का बंटवारा करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद से एक समझौता कर लिया था। इस विश्वासघात में स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी आफ़ इंडिया (सीपीआई) द्वारा मदद दी गई, जिसने मज़दूर वर्ग को गांधी नेहरू की अगुवाई वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पिछलग्गू बना दिया और एक अलग मुस्लिम देश, पाकिस्तान, बनाए जाने की मुस्लिम लीग की प्रतिक्रियावादी मांग का समर्थन किया था।
बंटवारे से बड़े पैमाने पर खून ख़राबा हुआ, इसने आर्थिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तर्कों को धता बताया, जोकि दक्षिण एशिया के ही राज्य ढांचे में अंतर्निहित साम्प्रदायिकता की वजह से हुआ और इसने भारत और पाकिस्तान के बीच एक प्रतिक्रियावादी रणनीतिक संघर्ष को हवा दी, जिसने कई युद्धों और युद्ध के संकटों को जन्म दिया है। लेकिन बंटवारा पिछली शताब्दियों में लोकतांत्रिक क्रांति से जुड़े कार्यभारों को पूरा करने में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की विफलता का सबसे स्पष्ट सबूत था, जिसमें खेती किसानी के संबंधों में आमूल-चूल पुनर्गठन, चर्च (धर्म) और राज्य को अलग करना और सभी किस्म के सामंती और अर्द्ध सामंती अवशेषों का समूल नाश शामिल है।
पहला बलोची अलगाववादी विद्रोह 1948 में भड़का, जब कलात के खानते को नए पाकिस्तान में शामिल किया गया। वर्तमान में जो पाकिस्तानी बलोचिस्तान है, उसका एक बड़ा हिस्सा, खानते के अंतर्गत आता था और ब्रिटिश इंडिया साम्राज्य में यह एक रियासत हुआ करती थी। लेकिन जब ब्रिटिश औपनिवेशिक मालिक चले गए तो ख़ान ने रियासत को आज़ाद घोषित करने की असफल कोशिश की। हालांकि वो जल्द ही ठंडे पड़ गए, जिसके बाद उनके भाई प्रिंस आग़ा अब्दुल करीम ने विभिन्न कबीलाई मुखियाओं के समर्थन से थोड़े समय के लिए विद्रोह की लगाम पकड़ी।
दूसरा बलोची अलगाववादी विद्रोह 1950 के दशक में फूटा और तीसरा, जो सबसे बड़ा था, वो 1973 से 1977 के बीच फूटा। और शीत युद्ध के दौरान, जब पाकिस्तान अमेरिका का सबसे कट्टर सहयोगी थी और सोवियत संघ को धमकाने और उसे अस्थिर करने की वॉशिंगटन की कोशिशों में एक वास्तिवक अग्रिम मोर्चे का देश हुआ करता था, बलोची अलगाववादी आंदोलन ने भी एशिया और अफ़्रीका में अन्य बुर्जुआ राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलनों की तरह ही समाजवादी चोला पहन लिया और मॉस्को से समर्थन की अपील की।
हालांकि, जबसे स्टालिनवादी नौकरशाही ने पूंजीवाद को बहाल कर दिया और सोवियत संघ का विघटन कर दिया, बलोची अलगाववादियों और जातीय-बर्चस्ववादियों ने और खुल कर और बिल्कुल नंगे होकर साम्राज्यवाद की शरण ले ली।
बलोची राष्ट्रवादियों ने अफ़ग़ानिस्तान पर दो दशक तक चले अमेरिकी-नेटो आक्रमण का समर्थन किया।
ऐतिहासिक रूप से बलोच पूंजीपति वर्ग के एक कमज़ोर और पिछड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हुए (जिसकी जड़ें सामंती-कबीलाई संबंधों में हैं) उन्होंने एक अलग 'ग्रेटर बलोचिस्तान' का नज़रिया विकसित कर लिया, जिसमें ईरान के बलोच सिस्तान इलाक़े का अधिकांश हिस्सा शामिल हैं, यानी वॉशिंगटन की हिंसक भूराजनैतिक हितों के लिए यह खाद पानी है- और ये सब सिर्फ इसलिए कि वे अपना एक देश चाहते हैं और मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी की क़ीमत पर वे साम्राज्यवाद से खुद सौदेबाजी करना चाहते हैं।
बलोच अलगाववादी और चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर
साल 2014 में जबसे चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) की लॉन्चिंग हुई है तबसे बलोच अलगाववादी आंदोलन ने खुद को अमेरिकी साम्राज्यवाद और इसके यूरोपीय और क्षेत्रीय सहयोगियों, ख़ासकर भारत के और क़रीब ला दिया है। वॉशिंगटन और नई दिल्ली दोनों ने ही सीपेक का विरोध किया है, जबकि वॉशिंगटन तो दबाव डाल रहा है कि पाकिस्तान इसे बंद कर दे और चीन से दूरी बना ले। शुरू से ही भारत ने सीपेक का विरोध किया है और बहाना बनाया है गिलगित बाल्टिस्तान से होकर गुजरने वाले यातायात कॉरिडोर का, जिसपर भारत अपना अपने कश्मीरी क्षेत्र में होने का दावा ठोंकता है।
असल में सीपेक बीजिंग का, अमेरिका के उस कदम का जवाब है, जिसके तहत अमेरिका किसी जंग की स्थिति में चीन के व्यापारिक रास्ते को बंद करने के लिए कई 'चौकियां' बना रहा है, जिसमें दक्षिणी चीन सागर भी शामिल है, इसके अलावा वो एशिया प्रशांत क्षेत्र को अत्यधिक सैन्यीकृत कर रहा है। सीपेक का मुख्य मकसद है- बलूचिस्तान अरब सागर के बंदरगाह ग्वादर को राजमार्गों, रेलवे और पाइपलाइनों के माध्यम से चीन से जोड़ने वाले परिवहन गलियारे का निर्माण और इस तरह कम से कम आंशिक रूप से ही समुद्री रास्तों पर अमेरिकी घेराबंदी को बाइपास करना।
बीजिंग के साथ जंग की अपनी तैयारी में जबसे अमेरिकी साम्राज्यवाद ने भारत को अपने साथ ले लिया है, पाकिस्तान ने पिछले डेढ़ दशक में चीन के साथ अपने आर्थिक और सैन्य रिश्तों में और नजदीकी विकसित कर ली है। परिणामस्वरूप, वॉशिंगटन के साथ इस्लामाद की पुरानी साझेदारी बुरी तरह प्रभावित हुई है। अमेरिका की शह पर ग़ज़ा में इसराइली जनसंहार और ईरान के ख़िलाफ़ जंग की इनकी तैयारी में तेजी के साथ ही बलोचिस्तान का भूराजनीतिक महत्व बढ़ गया है।
बीएलए और बलोची अलगाववादी आंदोलन, सीपेक और इस क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान के बीच रणनीतिक साझेदारी का कट्टर विरोधी है और इस परियोजना का इस इलाके में मछली पकड़ने के व्यवसाय पर पड़ने वाले असर और अन्य पर्यावरणीय चिंताओं का हवाला देते हुए अपने इस नज़रिए के ईर्द गिर्द जनता का समर्थन हासिल करना चाहता है। नवंबर 2018 में, बीएलए ने कराची में चीनी विणिज्य दूतावास को निशाना बनाया था और अपनी इस करतूत को सही ठहराते हुए एलान किया था: 'इस हमले का मकसद बिल्कुल साफ़ हैः बलोच ज़मीन पर हम किसी किस्म के चीनी सैन्य विस्तारवादी कोशिशों को बर्दाश्त नहीं करेंगे।'
अगस्त में अलगाववाद समर्थक बलोच ह्यूमन राइट्स काउंसिल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को एक चिट्ठी लिख कर, सम्राज्यवादियों के दबदबे वाले संयुक्त राष्ट्र से इस आधार पर बलोचिस्तान में हस्तक्षेप करने की मांग की कि यहां की जनता को 'चीनी समाजवादी उपनिवेशवाद द्वारा कुचला जा रहा है और सीपेक मौत और तबाही का कॉरिडोर है।'
इस तरह बलोचिस्तान और बलोची जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की बजाए, यह सवाल चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता में घसीटा जा रहा है, जोकि इस पूरे क्षेत्र के लिए विनाशकारी नतीजे लाने वाला होगा।
पाकिस्तान ने इस परियोजना में ख़ास तौर पर चीनी निवेश और उसके कर्मचारियों की रक्षा के लिए और इसी बहाने बलोची अलगाववादी हमलों का जवाब देने के लिए 20,000 सदस्यों वाला एक मजबूत सुरक्षा बल बनाया है। हालांकि सुरक्षा को लेकर चीन की चिंताएं बढ़ रही हैं।
बीते जून में एक वरिष्ठ चीनी अधिकारी के इस्लामाबाद के दौरे के दौरान सार्वजनिक रूप से बीजिंग का संदेश साफ़ और कड़े लहजे में दिया गया था। उस अधिकारी ने चेतावनी दी कि सुरक्षा के मुद्दे सीपेक के भविष्य को ख़तरे में डाल सकते हैं और कहा कि ख़राब होते सुरक्षा के हालात चीनी निवेशकों के 'भरोसे को डगमगा' रहे हैं।
पाकिस्तानी राज्य के दमन का विरोध करो!
26 अगस्त के हमले ने पाकिस्तानी सत्ता तंत्र को हिलाकर रख दिया और इसकी वजह से सघन सैन्य अभियान तेज हो गए और कुछ अलोकतांत्रिक तौर तरीकों में भी इजाफ़ा हुआ। बलोचिस्तान की राजधानी क्वेटा में एक उच्च स्तरीय बैठक में प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि 'बलोचिस्तान में अशांति पैदा करने वाले पाकिस्तान के दुश्मनों को पूरी ताक़त से हराया जाएगा' और ये भी कहा कि उन्हीं लोगों के साथ संवाद संभव है जो पाकिस्तान के संविधान की इज़्ज़त करते हैं और इसके राष्ट्रीय झंडे को सलाम करते हैं।
उसी दिन, वॉशिंगटन ने इस हमले की निंदा की, लेकिन राजनीतिक और सैन्य-सुरक्षा सत्ता तंत्र में एक ऐसा धड़ा है जो बलोची अलगाववादियों के साथ संबंधों को बढ़ा रहा है। सात दशकों पुराने पेंटागन-पाकिस्तान सैन्य गठबंधन के माध्यम से, वॉशिंगटन पाकिस्तान के साथ सैद्धांतिक रूप से अपना औपचारिक संबंध बनाए हुए है। बाइडन-हैरिस प्रशासन, आईएमएफ़ में अमेरिकी साम्राज्यवाद की दबदबे वाली स्थिति का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान पर बीजिंग के साथ रिश्ते कम करने का दबाव डाल रहा है क्योंकि शरीफ़ और उनकी मुस्लिम लीग (नवाज़) की अगुवाई वाली अल्पमत सरकार, आईएमएफ़ की ओर से तत्काल एक बेलआउट पैकेज पाने की पूरी कोशिश हो रही है। इस दबाव में वॉशिंगटन ये भी कह रहा है कि पाकिस्तान अब आगे सीपेक से जुड़े और स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन न बनाए, जिसकी संभावना अधिक दिखती है।
सेना और सरकार 26 अगस्त के हमले का बहाना लेकर, सेना और अन्य सुरक्षा बलों को लोगों को हिरासत में लेने और बिना समन के छापों और गिरफ़्तारियों के और अधिक अधिकार दिए जाने को सही ठहरा रही है। और इसके लिए इन मनमाने बदलावों को लागू करने के लिए एक विधेयक पेश किया है जिसे कथित तौर पर कैबिनेट ने पास भी कर दिया है।
जैसा कि हमेशा होता आया है, पाकिस्तानी सरकार विरोधियों पर निर्मम कार्रवाई करने और बलोचिस्तान समेत पूरे देश की ग़रीब और दबी कुचली जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को दबाने के लिए इन शक्तियों का इस्तेमाल करेगी। पूरे पाकिस्तान में, इस सरकार का ज़ोरदार विरोध हो रहा है, जो पिछले फ़रवरी में हुए चुनावों में सत्ता में आई थी जबकि इन चुनावों में सेना ने बड़े पैमाने पर दख़लंदाज़ी की थी। विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि आईएमएफ़ के कहने पर यह सरकार निर्मम उपाय लागू कर रही है, जिसमें बिजली की दरों में भारी बढ़ोत्तरी और नए परोक्ष टैक्स थोपना शामिल हैं।
26 अगस्त के ढाई सप्ताह पहले, लापता हुए लोगों, ज़बरदस्ती ग़ायब किए गए लोगों, ग़ैरन्यायिक हत्याओं और बलोचिस्तान के संसाधनों के दोहन के ख़िलाफ़, बलोच याकजेहती कमेटी (बीवाईसी) ने ग्वादर की मैरीन ड्राईव पर एक लंबा और विशाल प्रदर्शन किया था।
बलोचिस्तान की प्रांतीय सरकार के मुख्यमंत्री ने, इसके जवाब में, ग्वादर रैली में लोगों को शामिल होने से रोकने के लिए पूरे इलाक़े का इंटरनेट बंद कर दिया और सड़कों पर नाकेबंदी करने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया था। इस दौरान हुई झड़पों में दो लोग मारे गए और कई अन्य घायल हुए थे। इसके जवाब में बीवाईसी ने 14 जगहों पर धरने का एलान किया, जिसने पूरे बलोचिस्तान को ठप कर दिया था।
इन विशाल प्रदर्शनों के जवाब में सेना ने सार्वजनिक रूप से बीवाईसी की, विदेशी ताक़तों और आतंकवादियों का 'प्रॉक्सी' (छद्म) कहकर निंदा की।
बीवाईसी मांग कर रही है कि जिन हज़ारों लोगों को सुरक्षा बलों ने अपहृत कर लिया है, उन्हें ज़िंदा या मुर्दा जो भी हो, बरामद किया जाना चाहिए, और जो लोग दोषी हैं उन्हें क़ानून के मुताबिक़ सज़ा मिलनी चाहिए। ज़बरदस्ती लापता, गैर न्यायिक हत्याएं, गहरे तौर पर फैली ग़रीबी और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी ने युवक, युवतियों के एक बड़े दायरे को चरमपंथी बनाया है, जोकि बीवाईसी के लोकप्रिय समर्थन का मुख्य आधार हैं।
पाकिस्तानी राज्य के दमन और अराजकता को ख़त्म करने की मांगें पूरी तरह जायज हैं और ये तभी पूरी होंगी जब इस क्षेत्र और पूरे पाकिस्तान में राष्ट्रीय-जातीय, भाषा या धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठ कर मज़दूरों और ग्रामीण मेहनतकश आबादी लामबंद होगी।
लापता लोग, गैर न्यायिक हत्याएं, सेना द्वारा दमन और अन्य सरकारी अपराधों के ख़ात्मे की मांग और साम्प्रदायिकता और जातीय बर्चस्ववाद को बढ़ावा दिया जाना - बलोचिस्तान में ये ज्वलंत मुद्दे हैं, लेकिन ये मुद्दे पाकिस्तान और पूरे उपमहाद्वीप में आम तौर पर हर जगह मौजूद हैं। इसके अलावा, दक्षिण एशिया की प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग द्वारा, स्वतंत्रता के बाद तीन चौथाई सदी से भी अधिक समय के शासन ने दिखाया है कि, बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा का संघर्ष, पूंजीवाद और सम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष से नाभिनालबद्ध है, जोकि इस पूरे क्षेत्र में उन विनाशकारी हालात की जड़ है, जिसे जनता झेल रही है।
बलोचिस्तान के मज़दूरों के लिए आगे का रास्ता
हालांकि बलोच जनता की शिकायतें वास्तविक और गहरे रूप में पैठी हुई हैं, लेकिन विभिन्न अलगाववादी विद्रोही ग्रुप और राष्ट्रवादी पार्टियां किसी भी रूप में उनके हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। इसकी बजाय, वे अर्धसामंती सरदारों समेत पूंजीपति वर्ग के एक अधिकारसंपन्न तबके का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनकी यही मुख्य शिकायत है कि पाकिस्तानी राज्य उन्हें बलोचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों और खनिजों के राजस्व और मज़दूरों और मेहनतकश जनता के शोषण से बनने वाले मुनाफ़े में उन्हें 'वाजिब हिस्सा' नहीं लेने दे रहा है।
इंटरनेशनल कमेटी ऑफ़ फ़ोर्थ इंटरनेशनल ने जैसा कि पहले समझाया है कि जनवादी क्रांति की बुनियादी समस्याओं को हल करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया और अफ़्रीका में 'स्वतंत्र' पूंजीवादी राज्य की स्थापना में नाकामी और 1980 के दशक में पूंजीवादी वैश्विक एकीकरण के नए चरण ने 'नए राष्ट्रीय' आंदोलनों को जन्म दिया है, जो विशिष्टतावाद में फंस गए और साम्राज्यवाद की गोद में बैठ गए, और इसलिए जनता की लोकतांत्रिक और सामाजिक आकांक्षाओं के प्रति दुश्मनाना रुख़ वाले हो गए:
भारत और चीन में, राष्ट्रीय आंदोलन ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एक आम संघर्ष में अलग-अलग लोगों को एकजुट करने का प्रगतिशील काम किया - एक ऐसा काम जो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में असंभव साबित हुआ। राष्ट्रवाद का यह नया रूप, वैश्विक-चलायमान पूंजी की सेवा के मातहत स्थानीय शोषकों के लाभ के लिए मौजूदा राज्यों को बांटने के मकसद से जातीय और धार्मिक आधार पर अलगाववाद को बढ़ावा देता है। ऐसे आंदोलनों का साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष से कोई लेना-देना नहीं है, न ही वे किसी भी तरह से उत्पीड़ितों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का प्रतीक हैं। वे मज़दूर वर्ग को बांटने और वर्ग संघर्ष को जातीय-सांप्रदायिक युद्ध में बदलने का काम करते हैं।
जातीय-राष्ट्रवादी अलगाववादियों द्वारा बलोचिस्तान में गैर-बलोची मज़दूरों और निवासियों के ख़िलाफ़ नियमित रूप से की जाने वाली घातक हिंसा, बलोची राष्ट्रवादी आंदोलन की मज़दूर-विरोधी प्रकृति की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। यह आंदोलन, भारतीय पूंजीपति वर्ग को अपने पक्ष में करने, पाकिस्तानी अभिजात वर्ग के साथ अपनी प्रतिक्रियावादी रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता में खुद को नई दिल्ली के सहयोगी के रूप में पेश करने और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा चीन को फ़ेल करने के लिए अपने अधिक आक्रामक और विश्व युद्ध की हद तक जाने वाले खुले अभियान का साथ दे रहा है।
बलोचिस्तान के मज़दूर और मेहनतकश, एक 'स्वतंत्र' पूंजीवादी बलोचिस्तान पाने के प्रयासों में बीएलए और अन्य जातीय-अलगाववादियों का समर्थन करके, कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं, अगर ये देश मिल भी जाता है तो अमेरिकी साम्राज्यवाद और भारत का प्यादा देश होगा, या फिर बलोच बुर्जुआजी के दूसरे हिस्से द्वारा प्रस्तावित, 'उदारवादी' पूंजीवादी पाकिस्तान के भीतर ही अधिक स्वायत्तता की मांग का समर्थन देने से भी उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।
राष्ट्रीय और सभी प्रकार के उत्पीड़नों का गंभीरता से प्रतिरोध करने की चाहत रखने वाले मज़दूर वर्ग और सभी युवा लोगों को, आसीएफ़आई और इसके श्रीलंकाई धड़े और इसके पूर्ववर्ती रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग (आरसीएल) द्वारा सिंहला बुर्जुवा बर्चस्व वाली सरकार के तमिल अल्पसंख्यकों के लोकतांत्रितक अधिकारों को नकारने के विरोध में किए गए संघर्षों से सबक सीखना चाहिए।
तीन दशक के अधिकांश हिस्से में श्रीलंकाई सरकार द्वारा उकसाए और भड़काए गए नस्लीय गृह युद्ध के दौरान और सरकारी दमन के सामने और सिंहला-बर्चस्ववादी जेवीपी और तमिल अलगाववादियों, दोनों के हमले में आरसीएल-एसईपी ने, अकेले ही, तमिल बहुत उत्तरी और पूर्वी इलाक़ों से श्रीलंकाई सुरक्षा बलों की पूरी तरह और तुरंत वापसी के लिए लड़ाई लड़ी। दूसरी तरफ़, इसने बताया कि तमिलों के लोकतांत्रिक अधिकार, केवल पूंजीपति वर्ग के शासन के ख़िलाफ़ और यूनाइटेड सोशलिस्ट स्टेट्स ऑफ़ लंका और इलम के लिए, तमिल और सिंहला जनता के एकजुट होकर किए जाने वाले संघर्ष से ही हासिल किए जा सकते हैं।
इस पक्ष को इतिहास ने साबित भी किया है। अगर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल इलम (एलटीटीई) हार गया तो इसलिए क्योंकि यह पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ दबे कुचले सिंहली वर्करों और ग्रामीण आबादी के साथ किसी भी तरह के और सभी तरह के गठजोड़ के प्रति वह शत्रुतापूर्ण नज़रिया रखता था। इसकी बजाय, अलग देश पाने के लिए इसका अभियान भारत के साथ दांवपेंच और अमेरिका और अन्य सम्राज्यवादी ताक़तों से अपील करने पर निर्भर था। उस भारत के साथ, जिसने अपने स्वार्थी हितों के चलते 1987 में अचानक एलटीटीई से विश्वासघात कर दिया और हथियारों के बूते उसे कोलंबों के साथ सशर्त समझौता करने पर मजबूर करने की कोशिश की।
15 साल गुजर चुके हैं और भारत और अमेरिका की मध्यस्थता में कोलंबो के साथ 'सत्ता साझेदारी के समझौते' के साथ, एलटीटीई का बचा खुचा हिस्सा और तमिल पूंजीपति वर्ग के अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों ने, उत्तर और पूरब में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती, आईएमएफ़ के खर्च कटौती कार्यक्रम का समर्थन किया और चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ श्रीलंका की गलबहियों का खुद को सबसे बड़ा समर्थक घोषित करने की नीति अपना कर समझौता कर लिया है। इस बीच, मेहनतकश आबादी- सिंहली और तमिल, दोनों ही सामूहिक सामाजिक संघर्षों में शामिल हो रहे हैं और पूंजीपति वर्ग के सभी धड़ों की ओर से भड़काए गए जातीय और साम्प्रदायिक विभाजनों को भूल रहे हैं और पूंजाीवाद के ख़िलाफ़ और साम्राज्यवाद की ओर से बढ़ते वैश्विक युद्ध के ख़तरे के ख़िलाफ़ एक संयुक्त संघर्ष में तमिल लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को हासिल करने के लिए एक वस्तुगत हालात पैदा कर रहे हैं।
साम्राज्यवाद, पाकिस्तान के पूंजीपति वर्ग और दक्षिण एशिया के समूचे प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक राज्य तंत्र के ख़िलाफ़ बलोची मज़दूरों और युवाओं को, स्थाई क्रांति की रणनीति को अपने संघर्ष का आधार बनाना होगा। मेहनतकश लोगों के सबसे बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार और सामाजिक आकांक्षाएं, जिनमें साम्राज्यवाद से वास्तविक स्वतंत्रता और दक्षिण एशिया के विभिन्न जातीय-भाषाई और धार्मिक समूहों के बीच वास्तविक समानता शामिल है, मज़दूरों की सत्ता के लिए, केवल क्षेत्र की जनता को एकजुट करने के संघर्ष के माध्यम से ही अमल में लाई जा सकती है। मज़दूर वर्ग को पूंजीपति वर्ग के सभी धड़ों के विरोध में ग्रामीण मेहनतकशों और उत्पीड़ितों को अपने पीछे लामबंद करना होगा और एक समाजवादी कार्यक्रम के आधार पर पूरे इलाक़े के मज़दूरों के साथ एकता बनानी होगी, जिसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक जीवन को पुनर्गठित करना और सौहार्दपूर्ण और न्यायसंगत विकास के लिए - सोशलिस्ट यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ साउथ एशिया के लिए संघर्ष करना होगा।