हिन्दी

मोदी सरकार के वर्गीय युद्ध छेड़ने के ख़िलाफ़ करोड़ो भारतीय मज़दूरों की एक दिवसीय आम हड़ताल

यह मूल लेख Tens of millions of Indian workers join 1-day general strike against Modi government’s class war assault नौ जुलाई को प्रकाशित हुआ था।

भारत भर में करोड़ों मज़दूरों ने बुधवार, 9 जुलाई को एक दिन की आम हड़ताल में हिस्सा लिया। यह हड़ताल दक्षिणपंथी नरेंद्र मोदी सरकार की 'वर्ग युद्ध' जैसी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध के तौर पर आयोजित की गई थी।

हड़ताल में शामिल लोगों ने कार्यदिवस बढ़ाए जाने, ठेका मज़दूरी को बढ़ावा देने, निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं को कमज़ोर करने और अधिकतर हड़तालों को अवैध बना देने तथा यूनियन संगठन की प्रक्रिया को बाधित करने वाले क़ानूनों का विरोध किया।

इस हड़ताल का आह्वान 'जॉइंट प्लेटफॉर्म ऑफ सेंट्रल ट्रेड यूनियन्स एंड फेडरेशंस' (जेपीसीटीयूएफ़) के नेताओं ने किया था। इसे किसान और खेतिहर मज़दूर संगठनों का भी समर्थन हासिल था।

जेपीसीटीयूएफ़ में 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनें और कई कई क्षेत्रों के श्रमिक फ़ेडरेशनें शामिल हैं। सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सबसे प्रभावशाली फ़ेडरेशनों में स्टालिनवादी नेतृत्व वाले दो प्रमुख लेबर फ़ेडरेशनें शामिल हैं—भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से संबद्ध सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक)। कांग्रेस पार्टी की भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) भी जेपीसीटीयूएफ़ का एक प्रमुख सदस्य है।

बुधवार की राष्ट्रव्यापी हड़ताल पहले 20 मई को होनी थी। लेकिन ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम से 7 मई को पाकिस्तान पर हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार की उकसावे भरी और अवैध सैन्य कार्रवाई के बाद जेपीसीटीयूएफ़ ने इसे स्थगित कर दिया था। इस हमले ने दक्षिण एशिया के परमाणु हथियार संपन्न दो विरोधी देशों को खुले युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया था। जेपीसीटीयूएफ़ और उससे जुड़े राजनीतिक संगठनों ने राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक युद्धोन्माद के दबाव में हड़ताल टालकर मोदी सरकार की पकड़ को और मज़बूत किया और इससे उसकी नीतियों, चाहे देश के भीतर मज़दूरों के ख़िलाफ़ हों या विदेश में आक्रामक रणनीति से जुड़ी हों, उसे अप्रत्यक्ष समर्थन मिला।

हड़ताल में मज़दूर वर्ग के बड़े हिस्से शामिल हुए, जो उस सांप्रदायिक और जातिगत विभाजन से ऊपर थे जिसे शासक वर्ग और उसके राजनीतिक प्रतिनिधि लगातार भड़का रहे हैं। इसमें सरकारी कर्मचारी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से जुड़े मज़दूर, ऑटो सेक्टर जैसी वैश्विक सप्लाई चेन से जुड़ी मैन्यूफ़ैक्चरिंग इकाइयों में काम करने वाले वर्कर और कुछ हद तक असंगठित क्षेत्र के मज़दूर भी शामिल थे।

कोयला खनन, इस्पात उत्पादन, बैंकिंग, डाक सेवाओं और सार्वजनिक बस परिवहन जैसी प्रमुख औद्योगिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित रहीं। कुछ ऑटोमोबाइल प्लांटों जैसे तमिलनाडु के होसूर में स्थित अशोक लेलैंड की फैक्ट्री को आंशिक रूप से बंद करना पड़ा। जबकि मारुति सुज़ुकी और ह्युंडई सहित अन्य प्लांटों में प्रबंधन ने बड़ी संख्या में 'ग़ैर हाज़िर' की बढ़ती दर से निपटने के लिए उत्पादन की रफ्तार धीमी कर दी और मैनेजरों को उत्पादन लाइनों पर तैनात किया।

रेल सेवाएं आम तौर पर प्रभावित नहीं हुईं, लेकिन पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार जैसे राज्यों में प्रदर्शनकारियों ने रेलवे रोको अभियान चलाया जिससे जिससे सेवाएं बाधित हुईं।

गुरुग्राम में हड़ताली मज़दूरों में मिड-डे मील कर्मी, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, बैंक कर्मचारी, रोडवेज कर्मी और ऑटो उद्योग के मज़दूर शामिल थे।

हड़ताल को लेकर अलग अलग क्षेत्रों में समर्थन में भारी अंतर देखा गया।

केरल में, जहां राज्य सरकार माकपा (सीपीएम) के नेतृत्व में है, जनजीवन लगभग ठप रहा। यह स्थिति उस समय भी बनी रही जब राज्य के परिवहन मंत्री ने दावा किया था कि केरल राज्य सड़क परिवहन निगम (केएसआरटीसी) की बसें सामान्य रूप से चलती रहेंगी।

पश्चिम बंगाल में, जहां सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने हड़ताल को विफल बनाने का एलान किया था। कई ज़िलों में हड़ताल समर्थकों और पुलिस और टीएमसी के गुंडों के बीच तीखी झड़पें हुईं। समाचार रिपोर्टों के अनुसार, हज़ार से ज़्यादा हड़ताल समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया। टीएमसी के प्रवक्ता ने राज्य की सख़्ती का बचाव करते हुए हड़ताल को 'प्रदर्शन के नाम पर गुंडागर्दी' क़रार दिया था।

•      दिल्ली से सटे औद्योगिक क्षेत्र गुरुग्राम में ऑटो, मैन्युफ़ैक्चरिंग, बैंकिंग, स्वास्थ्य और चाइल्ड केयर सेक्टरों के हज़ारों मज़दूरों ने कमला नेहरू पार्क से पोस्ट ऑफ़िस तक मार्च निकाला और एक सभा की।

•      पूर्वोत्तर राज्य असम में चाय बागान मज़दूरों ने प्रदेश भर में प्रदर्शन किया।

•      बेंगलुरु में लगभग 5,000 हड़ताली मज़दूर फ्रीडम पार्क में इकट्ठा हुए, जहां उन्होंने नारेबाज़ी की और तख्तियां लेकर प्रदर्शन किया। कर्नाटक के अन्य हिस्सों में, विशेष रूप से हुबली में, हज़ारों मज़दूरों ने रैली निकाली।

•      तमिलनाडु में बस और ऑटो-रिक्शा सेवाएं बाधित रहीं, खासकर राजधानी चेन्नई और विनिर्माण केंद्रों कोयंबटूर और तिरुचिरापल्ली में। कई बैंक और बीमा शाखाएं बंद रहीं और ऑटोमोबाइल उत्पादन भी प्रभावित हुआ।

•      झारखंड में हड़ताल के चलते सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड और ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड की सभी गतिविधियां ठप रहीं। झारखंड स्टेट ग्रामीण बैंक के मुख्यालय समेत उसकी सभी 450 शाखाएं और क्षेत्रीय कार्यालय, जिनमें बिहार की शाखाएं भी शामिल हैं, बंद रहे।

•      महाराष्ट्र में, जहां देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है, ऑटो, दवा और इंजीनियरिंग कंपनियों ने कामकाज में कमी दर्ज की। इसका कारण मज़दूरों की अनुपस्थिति, 'जस्ट इन टाइम' उत्पादन में व्यवधान और बिजली कटौती रहा। राज्य के पश्चिमी हिस्से में महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी के मज़दूरों की हड़ताल से कई औद्योगिक इलाकों में बिजली आपूर्ति प्रभावित हुई।

•      बिहार में, जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं, विपक्षी दलों ने हड़ताल के साथ राज्यव्यापी प्रदर्शन आयोजित किए।

•      उत्तर प्रदेश (यूपी) में और देश के अन्य हिस्सों की तरह, निजीकरण के ख़तरे का सामना कर रहे मज़दूरों ने हड़ताल को ज़ोरदार समर्थन दिया। देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में बैंकों और बीमा कार्यालयों की सेवाएं या तो ठप रहीं या बुरी तरह बाधित हुईं। इसके अलावा, राज्य सरकार के स्वामित्व वाली दो बिजली वितरण कंपनियों पीवीवीएएल और डीवीवीएनएल के निजीकरण के विरोध में 2.7 लाख बिजलीकर्मी काम छोड़कर हड़ताल पर चले गए।

बैंक कर्मचारी चेतन भी बेंगलुरु के फ्रीडम पार्क में आयोजित विरोध रैली में शामिल हज़ारों हड़ताली मज़दूरों में से एक थे।

कर्नाटक में केनरा बैंक के एक हड़ताली कर्मचारी चेतन ने वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट से कहा, “सार्वजनिक बैंक सेवाओं को सेवा भावना के साथ चलाया जाना चाहिए, लाभ के लिए नहीं। लेकिन सरकार इन्हें मुनाफ़े के लिए चलाने वाली संस्था की तरह चला रही है। अब मोदी सरकार इन्हें तेज़ी से निजी हाथों में सौंपना चाहती है।”

मज़दूरों को हो रही परेशानियों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, “सरकार कहती है महंगाई नियंत्रण में है। यहां एक किलो आलू 40 रुपये है और एक सेब 45 रुपये का मिलता है। फिर ये कैसे नियंत्रण में हुआ? ये सब केंद्रीय मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में सरकार की हेराफेरी है।”

25 वर्षों का अनुभव लिए एक निजी क्षेत्र के मज़दूर ने कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की उस योजना का विरोध किया, जिसमें गुजरात की भाजपा सरकार की तरह कार्यदिवस को 12 घंटे तक बढ़ाने की बात है। उन्होंने कहा, “8 घंटे काम के लिए, 8 घंटे नींद के लिए और 8 घंटे हमारे व्यक्तिगत जीवन के लिए होते हैं। जब वे ज़्यादा काम की मांग करते हैं, तो हम इसे कैसे स्वीकार करें?”

कुछ सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कर्मचारियों ने नाम न ज़ाहिर करते हुए चर्चा को आगे बढ़ाया। उनमें से एक ने कहा, “यह हड़ताल बेहद ज़रूरी है। हम कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं, खासकर जब हमसे रोज़ाना 12 से 14 घंटे काम करने की अपेक्षा की जा रही है।” उनके सहकर्मी ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ही नहीं, बल्कि राज्य सरकारें भी चाहे वे हिंदुत्ववादी दलों की हों या कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में विपक्षी दलों की “लेबर कोड्स को कमजोर कर रही हैं” ताकि मज़दूरों का शोषण बढ़ाया जा सके।

केनरा बैंक के एक अन्य कर्मचारी ने ज़ोमैटो और स्विगी जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर काम करने वाले डिलीवरी कर्मियों और अन्य असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को मिलने वाली बेहद कम मज़दूरी और खराब कार्य परिस्थितियों पर चिंता जताई। उन्होंने यह भी कहा कि चाहे बैंक निजी हों या अब भी सरकारी स्वामित्व में, सभी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का इस्तेमाल कर नौकरियां घटाने की योजना बना रहे हैं।

बेंगलुरु के फ्रीडम पार्क में विरोध करते हड़ताली आईटी कर्मचारी।

इन बातचीतों से यह साफ़ हुआ कि मज़दूर मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने को तैयार हैं और वास्तव में उत्सुक भी हैं, जो अब पहले से कहीं ज़्यादा खुलकर राज्य की दमनकारी ताक़त और सांप्रदायिक उकसावे का इस्तेमाल कर सामाजिक असहमति को कुचल रही है, हिंदुत्ववादी प्रतिक्रियावाद को हवा दे रही है और मज़दूर वर्ग को बांटने की कोशिश कर रही है।

केंद्र सरकार अब सभी 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अपनी श्रम संहिता “सुधार” को थोपने पर ज़ोर दे रही है। भाजपा द्वारा तैयार किए गए ये श्रम कानून न सिर्फ़ बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम कर रहे मज़दूरों को छंटनी और इकाई बंद होने से मिलने वाले संरक्षण को कमजोर करते हैं, बल्कि कम मज़दूरी वाली अस्थायी ठेका नौकरियों को बढ़ावा देते हैं और शौचालय व पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की अनिवार्यता को भी ख़त्म कर देते हैं। इन कानूनों के तहत अधिकांश मज़दूर आंदोलनों को अवैध घोषित किया जा सकता है।

मज़दूर अधिकारों पर हमले के लिए शासक वर्ग के भीतर व्यापक समर्थन को दिखाते हुए, पिछले हफ्ते तमिलनाडु हाईकोर्ट के एक जज ने हुंडई कर्मचारियों की संभावित हड़ताल पर नाराज़गी जताई। उन्होंने कहा, “जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उद्योगों को यहां निवेश के लिए आमंत्रित करते हैं तो अगर आप बार-बार प्रदर्शन करते रहेंगे, तो कौन यहां निवेश करेगा? देश कैसे तरक़्क़ी करेगा?”

बुधवार की एक दिवसीय आम हड़ताल को मज़दूरों ने, मोदी सरकार और व्यापक रूप से भारतीय शासक वर्ग के ख़िलाफ़ अपने स्वतंत्र वर्गीय हित जताने के एक माध्यम के रूप में देखा। लेकिन पूंजीवादी हितों से जुड़े ट्रेड यूनियनों और स्तालिनवादी दलों- मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) और उनसे जुड़ी माओवादी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन—के लिए यह एक सियासी चाल थी, जिसका मक़सद मज़दूर वर्ग पर अपनी तेज़ी से घटती पकड़ को बनाए रखना था।

जैसा कि स्वयं स्तालिनवादी स्वीकार करते हैं, बुधवार की हड़ताल 1991 के बाद से देशभर में केंद्रित 23वीं “सामान्य हड़ताल” थी, जिसका नेतृत्व सीटू और एटक ने किया। 1991 वह मोड़ था जब भारतीय पूंजीपति वर्ग ने राज्य-नियंत्रित पूंजीवादी विकास मॉडल को त्याग कर तथाकथित 'नव-उदारीकरण' की नीति अपनाई और अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था में पूरी तरह एकीकृत होने की दिशा में बढ़ा।

इन विरोध प्रदर्शनों में से 20 एक दिवसीय हड़तालें थीं, जबकि 2013, 2019 और 2022 में तीन बार हड़तालें दो दिनों तक चलीं। लेकिन ये कभी भी मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक ताक़त के निर्माण की ओर केंद्रित नहीं रहीं, न ही इन्होंने ग्रामीण आबादी को भारतीय पूंजीवाद, उसकी “निवेशक-हितैषी” नीतियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ “वैश्विक रणनीतिक साझेदारी” के ख़िलाफ़ लामबंद किया।

वास्तव में, इन हड़तालों का उद्देश्य मज़दूर वर्ग के विरोध को बुर्जुआ संसदीय राजनीति और ट्रेड यूनियन की सामूहिक सौदेबाज़ी के दायरे में ही सीमित रखना रहा है। वर्षों तक यह स्तालिनवादी संगठनों की उस मांग में झलकता रहा, जिसमें उन्होंने कांग्रेस या बीजेपी के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी सरकारों से “जन-कल्याण” वाली नीतियां अपनाने की अपील की।

सीटू, एटक और जेपीसीटीयूएफ़ की एक प्रमुख शिकायत यह भी रही है कि मोदी सरकार ने वर्षों से “श्रम संबंधों” के प्रबंधन पर चर्चा के लिए सरकार, यूनियनों और कॉरपोरेट क्षेत्र के बीच होने वाले त्रिपक्षीय नेशनल लेबर कॉन्फ्रेंस का आयोजन नहीं किया है।

वास्तविकता यह है कि स्तालिनवादी दलों ने संगठित रूप से वर्ग संघर्ष को दबाया है। वे भले ही नव-उदारीकरण नीतियों की आलोचना करते हों, लेकिन संसद में उन्होंने एक के बाद एक केंद्र सरकारों को समर्थन दिया, जिन्होंने इन्हीं नीतियों को लागू किया। यहां तक कि जिन राज्यों में माकपा (सीपीएम) सत्ता में रही, वहां भी उसने स्वयं ही तथाकथित “निवेशक-समर्थक” नीतियां अपनाईं। पश्चिम बंगाल में माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार ने “बीमार उद्योगों” का निजीकरण किया और उन्हें बंद किया, आईटी क्षेत्र में हड़तालों पर प्रतिबंध लगाया, और भूमि अधिग्रहण के विरोध में किसानों के आंदोलनों को बलपूर्वक कुचला।

निवेशकों के बीच अपनी साख़ बनाए रखने की कोशिश में, वर्तमान में सीपीएम के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने बुधवार की हड़ताल से खुद को अलग दिखाने की कोशिश की। उसने सरकारी कर्मचारियों, केएसआरटीसी और केरल राज्य विद्युत बोर्ड के कर्मचारियों को चेतावनी जारी की कि वे हड़ताल में शामिल न हों, वरना उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी।

स्तालिनवादी पार्टियां और उनसे संबद्ध यूनियनें हिंदुत्ववादी मोदी सरकार के अपराधों की ओर इशारा तो करती हैं, लेकिन इसका मक़सद भारतीय पूंजीवाद पर सवाल उठाना या मज़दूर वर्ग को संघर्ष के लिए लामबंद करना नहीं होता। इसके उलट, वे मज़दूरों को कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (इंडिया) गठबंधन से जोड़ने की कोशिश करती हैं, जो भाजपा की जगह एक और दक्षिणपंथी पूंजीवादी सरकार बनाना चाहता है, जो मज़दूरों के शोषण और अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी जैसे एजेंडे को लेकर उतना ही प्रतिबद्ध है।

भारत सहित पूरी दुनिया में मज़दूर तबका तब तक अपने वर्गीय हितों की रक्षा नहीं कर सकता जब तक वह पूंजीवाद समर्थक ट्रेड यूनियनों से स्वतंत्र और श्रमिक विरोधी सत्ताधारी 'वामपंथी' पार्टियों के राजनीतिक विकल्प के रूप में नए संघर्षशील संगठन नहीं खड़ा करता।

इसमें कार्यस्थलों पर एक्शन कमेटियों का ऐसा नेटवर्क शामिल होना चाहिए जो हर क्षेत्र में काम करने वाले परमानेंट और ठेका दोनों प्रकार के मज़दूरों को एकजुट करे सांप्रदायिक और जातिगत विभाजनों से परे और उनके संघर्षों को वैश्विक मज़दूर आंदोलनों से जोड़े। साथ ही यह भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिक्रियावादी महाशक्ति हितों और श्रमिक विरोधी नीतियों का विरोध भी करे।

सबसे अहम ज़रूरत यह है कि मज़दूर वर्ग एक व्यापक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण करे, जो ट्रॉट्स्कीवादी ‘स्थायी क्रांति’ के कार्यक्रम पर आधारित हो, जो ग्रामीण मेहनतकशों को अपने साथ जोड़ते हुए भारतीय पूंजीवाद और वैश्विक साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में अगुआ भूमिका निभाए, जातिवाद और सांप्रदायिकता का अंत करे और दक्षिण एशिया में ‘संयुक्त समाजवादी राज्यों’ की स्थापना के ज़रिए सामाजिक समानता सुनिश्चित करे।

Loading