यह हिंदी अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख Trump’s 50% tariffs on India take force का है जो 27 अगस्त 2025 को प्रकाशित हुआ था।
रूस से तेल ख़रीदने और उसे हथियारबंद करने का आरोप लगाते हुए छह अगस्त को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया था। इसके साथ ही अधिकांश भारतीय वस्तुओं पर अमेरिकी टैरिफ़ बढ़कर दोगुना यानी 50 प्रतिशत हो गया है और यह अब लागू हो चुका है।
मौजूदा समय में केवल ब्रिक्स के सदस्य ब्राज़ील और छोटे लेसोथो पर ही ऐसे दंडात्मक अमेरिकी टैरिफ़ लगाए गए हैं।
टैरिफ़ ने धीमी होती विकास दर के संकट से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था को और बुरी तरह अस्थिर करने का ख़तरा पैदा कर दिया है जबकि पहले ही यह निजी क्षेत्र की ओर से कम निवेश, सामूहिक बेरोज़गारी और अर्द्धबेरोज़गार की समस्याओं से जूझ रही है।
टेक्सटाइल्स, गार्मेंट्स, ऑटो पार्ट्स, केमिकल्स, जेम्स और ज्वेलरी जैसे कई भारतीय उद्योगों पर टैरिफ़ का भारी असर पड़ने वाला है। मध्य भारत के कपड़ा उद्योग का केंद्र माने जाने वाले तमिलनाडु के तिरुपुर में फ़ैक्ट्रियों के मालिकों ने कहा है कि उन्हें लगता है कि तत्काल बहुत सारी नौकरियां चली जाएंगी और फ़ैक्ट्रियां बंद हो जाएंगी। उनका अनुमान है कि अगले कुछ हफ़्तों में सीधे तौर पर क़रीब 1,50,000 नौकरियां चली जाएंगी।
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है और वित्तीय वर्ष 2024-2025 में भारत के कुल निर्यात का 19 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका को गया। विश्लेषकों का अनुमान है कि महत्वपूर्ण खनिजों, दवाओं और अन्य उत्पादों के लिए छूट को अगर ध्यान में रखा जाय तब भी, पिछले साल भारत ने अमेरिका को जो 86 अरब डॉलर के सामान का निर्यात किया था, उसमें 50 अरब डॉलर के निर्यात वाली वस्तुएं टैरिफ़ से प्रभावित होंगी।
यदि टैरिफ़ को जल्द वापस नहीं लिया गया, तो इससे विदेशी निवेश आकर्षित करने की भारत की कोशिशों पर पानी फिर जाएगा, क्योंकि निवेश के लिए अमेरिकी सरकार के दबाव में वो पश्चिमी कंपनियां भी शामिल हैं, जिन पर चीन से अपने उत्पादन को हटाने और चीन में ठेकेदारों पर अपनी निर्भरता कम करने या बिल्कुल समाप्त करने का भारी प्रेशर है।
नई दिल्ली से रूस के साथ अपने संबंधों को बहुत कम करने की ट्रंप की मांग और टैरिफ़ ने, भारत के पूंजीवादी सत्ताधारी अभिजात वर्ग की दीर्घकालिक गणित को उलट पुलट कर दिया है। अमेरिका चाहता है कि भारत रूस से संबंध तोड़ ले ताकि उसकी विदेश नीति के प्रमुख तत्व पर वॉशिंगटन हावी हो जाए।
पिछले दो दशकों से भारत की सरकारें, चाहे वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली हों या कांग्रेस पार्टी की, अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ नई दिल्ली की 'वैश्विक रणनीतिक साझेदारी' को भारत की विदेश नीति का आधारस्तंभ बनाए हुए हैं। चीन को रणनीतिक रूप से अलग-थलग करने और घेरने के अमेरिकी प्रयासों में मदद के लिए भारतीय पूंजीपति वर्ग बिछ सा गया है और इस 'साझेदारी' ने वॉशिंगटन के चीन के साथ लगातार बढ़ते, चौतरफ़ा आर्थिक और सैन्य-रणनीतिक आक्रामकता में भारत को अमेरिका की अग्रिम चौकी में बदल दिया है।
मोदी सरकार के तहत और ख़ासकर पिछले पांच सालों के दौरान, भारत ने वॉशिंगटन और उसके प्रमुख एशिया प्रशांत संधि सहयोगियों- जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय और चतुष्कोणीय सैन्य-सुरक्षा संबंधों के जाल में खुद को धंसा दिया है।
आने वाले हफ्तों में, ट्रंप नई दिल्ली का दौरा करेंगे और मोदी, जापानी प्रधानमंत्री शिगेरु इशिबा और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानी के साथ चौकड़ी वाले सुरक्षा वार्ता के शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे, जोकि वॉशिंगटन का अनौपचारिक चीन-विरोधी, भारत-प्रशांत गठबंधन है।
और फिर भी, यूरोपीय शक्तियों और कनाडा की तरह ही भारतीय शासक वर्ग के पसीने छूट रहे हैं क्योंकि उसके तथाकथित अमेरिकी पार्टनर ने उसके पैरों तले से जमीन खींच ली है। और ऐसा इसलिए है क्योंकि ट्रंप लंबे समय से चले आ रहे समझौतों और साझेदारियों को ताक पर रखते हुए अमेरिकी साम्राज्यवाद के आर्थिक और भू-राजनीतिक हितों को बेरहमी से आगे बढ़ा रहे हैं।
इसका आक्रोश और गुस्सा इसलिए भी बढ़ रहा है क्योंकि भारत को निशाना बनाया जा रहा है। भारत सरकार, विपक्षी दलों और मीडिया के साथ मिलकर, शिकायत कर रही है कि ट्रंप प्रशासन ने चीन और तुर्की के ख़िलाफ़ ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की है, जिन्होंने नेटो द्वारा भड़काए गए यूक्रेन युद्ध के बीच, रूस के साथ व्यापक आर्थिक संबंध बनाए रखे हैं।
ये ध्यान देने की बात है कि भारत के ख़िलाफ़ अमेरिका का ट्रेड वॉर अगस्त की शुरुआत में ही शुरू हो गया था, जबकि उस समय ट्रंप, क्रेमलिन के साथ 'शांति समझौते' पर पहुंचने के लिए अपने प्रयासों को तेज कर रहे थे, जिसका मक़सद रूसी और यूक्रेनी संसाधनों पर विशेष अधिकार प्राप्त करना और चीन के साथ युद्ध की तैयारी के लिए अमेरिका के सैन्य और आर्थिक संसाधनों को एकजुट करना था।
भारत ट्रंप के अप्रत्याशित हमले का जवाब तलाश रहा है
इस अचानक, अप्रत्याशित मोड़ का सामना करते हुए, मोदी सरकार और भारतीय शासक वर्ग दोनों अपनी स्थिति समझने और कोई ठोस जवाब देने के लिए जूझ रहे हैं।
पिछले हफ़्ते बोलते हुए, भारतीय विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर ने कहा कि भारत ट्रंप प्रशासन के इस हमले से 'बहुत हैरान' है। उन्होंने आगे कहा कि अगर पश्चिमी शक्तियाँ इस बात बात से सहमत नहीं हैं कि रूसी तेल को रिफ़ाइन करके विश्व बाज़ार में फिर से बेचा जाए तो उन्हें बस इतना करना होगा कि वे रूसी तेल ख़रीदना बंद कर दें।
इस बात को रेखांकित करने के लिए कि भारत धौंस नहीं सहेगा, नई दिल्ली खुले तौर पर बीजिंग और मॉस्को के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करने की ओर बढ़ चुकी है। जयशंकर पिछले हफ़्ते तीन दिनों की वार्ता के लिए रूस गए थे। इस दौरे का एक मक़सद, दिसंबर 2021 के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की पहली भारत यात्रा की योजनाओं को अंतिम रूप देना भी था।
चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने 18-19 अगस्त को नई दिल्ली का दौरा किया और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, जयशंकर और मोदी से मुलाकात की। भारत के प्रधानमंत्री खुद 2019 के बाद पहली बार इस सप्ताह के अंत में तियानजिन में 31 अगस्त से 2 सितंबर तक होने वाले शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन की यात्रा पर जा रहे हैं। वहाँ मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच, शिखर सम्मेलन से इतर विवादित सीमा पर तनाव कम करने और आर्थिक सहयोग बढ़ाने पर चर्चा करने की उम्मीद है। उल्लेखनीय है कि साल 2020 में हुई खूनी झड़पों के बाद तैनात किए गए कुछ टैंक, युद्धक विमान और सैनिक वापस बुला लिए गए हैं।
लेकि साथ ही साथ, नई दिल्ली वॉशिंगटन के साथ समझौता करने और अपनी रणनीतिक साझेदारी को गहरा करने की अपनी इच्छा पर ज़ोर दे रही है।
मंगलवार को, भारत और अमेरिका के विदेश मामलों और रक्षा अधिकारियों ने भारत-अमेरिका 2+2 वार्ता ढांचे के तहत एक वर्चुअल बैठक की। भारत सरकार के एक बयान में सैन्य-रक्षा सहयोग बढ़ाने पर हुई चर्चा की गई, जिसमें हथियारों का सह-उत्पादन, महत्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति, क्वाड का विकास और इस साल के अंत में समाप्त होने जा रही नई 10-वर्षीय 'भारत-अमेरिका प्रमुख रक्षा साझेदारी की रूपरेखा' को अंतिम रूप देना शामिल है। अमेरिकी विदेश विभाग की एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि दोनों पक्ष '21वीं सदी और उसके बाद के लिए यूएस-इंडिया कॉम्पैक्ट (सैन्य साझेदारी, त्वरित वाणिज्य और प्रौद्योगिकी के लिए अवसरों को बढ़ावा देने) के तहत रक्षा सहयोग बढ़ाने और इन क्षेत्रों में हुई प्रगति को और आगे बढ़ाने के लिए तत्पर हैं।'
इस बैठक के अलावा, ट्रंप, उनके सहयोगी और उनके अधिकारी लगातार यह मांग कर रहे हैं कि भारत व्यापक व्यापार और भू-रणनीतिक रियायतें दे। उन्होंने रूस के साथ भारत के संबंधों और व्यापार नीतियों की कड़ी आलोचना की है और फासीवादी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत पर दुनिया में 'सबसे ज़्यादा टैरिफ़' लगाने का आरोप लगाया है। फ़ाइनेंशियल टाइम्स के एक लेख में, व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने नई दिल्ली की 'रूस और चीन, दोनों के साथ नज़दीकियाँ बढ़ाने' के लिए लानत मलानत की और फिर घोषणा की कि अगर भारत 'अमेरिका के रणनीतिक साझेदार के रूप में रहना चाहता है, तो उसे एक रणनीतिक साझेदार की तरह व्यवहार करना शुरू करना होगा।'
ट्रंप ने बार बार अपनी टैरिफ़ नीतियों को बदला है। और इसमें चीन पर 90-दिवसीय व्यापार युद्ध के तहत 135 प्रतिशत टैरिफ़ को वापस लेना भी शामिल है, जब बीजिंग ने भी जवाब में 100 प्रतिशत से अधिक टैरिफ़ लगा दिए और रेयर अर्थ मटीरियल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। हालाँकि, भारत को कोई राहत नहीं दी गई। इसके बजाय, भारत पर टैरिफ़ दोगुना करने की 27 अगस्त की समय सीमा से कुछ ही दिन पहले, अमेरिकी व्यापार वार्ताकारों ने नई दिल्ली की अपनी प्रस्तावित यात्रा रद्द कर दी।
स्पष्ट तौर पर, ट्रंप को यह आभास है कि भारत अमेरिकी दबाव के प्रति कमज़ोर है और वह इसका फायदा उठाने के लिए व्यग्र हैं, भले ही इसके लिए उन्हें अमेरिकी राजनीतिक और सैन्य-सुरक्षा प्रतिष्ठान के बड़े हिस्से की अनदेखी करनी पड़े, जिन्हें डर है कि ऐसा करने से वह बेकार में भारत-अमेरिका गठबंधन को ख़तरे में डाल रहे हैं क्योंकि यह हिस्सा चीन को काबू करने में इसे महत्वपूर्ण मानता है।
ट्रंप की मांगें और नई दिल्ली के रणनीतिक हित
ट्रंप भारत से जो माँग कर रहे हैं, वह नई दिल्ली और समग्र रूप से शासक वर्ग के महत्वपूर्ण रणनीतिक हितों के लिए ख़तरा है।
नेटो शक्तियों द्वारा मॉस्को पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण रियायती दामों पर बेचा जाने वाला सस्ता रूसी तेल, विदेशी निवेश में गिरावट और घरेलू खपत में कमी के कारण धीमी आर्थिक वृद्धि की स्थिति में भारत की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हुआ है।
लेकिन यह वह मुख्य कारण नहीं है जिसकी वजह से नई दिल्ली, ट्रंप की इस मांग से भड़क गया है कि वह मॉस्को के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से कम कर दे। रूस के साथ भारत का रणनीतिक गठबंधन शीत युद्ध के समय से है और इसे विश्व भू-राजनीति में लगातार बढ़ती अराजकता के बीच 'रणनीतिक स्वायत्तता' बनाए रखने के उसके निरंतर प्रयासों का अहम पहलू माना जाता है। चीन के ख़िलाफ़ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ खुद को और भी करीब लाने के बावजूद, वॉशिंगटन के अपने हितों को बेरहमी से आगे बढ़ाने और धौंस-धमकी व आक्रामकता का सहारा लेने की उसकी तत्परता से नई दिल्ली के कान खड़े हो गए हैं।
हालाँकि भारत ने रूसी निर्मित हथियारों पर अपनी निर्भरता कम करने की दिशा में कदम उठाए हैं, फिर भी वे उसकी सेना के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं। रूस भारत के परमाणु उद्योग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यहां तक कि रूस में नेटो युद्ध भड़काने वाले बाइडन प्रशासन ने अंततः मॉस्को के साथ अपने सतत् संबंधों को लेकर नई दिल्ली पर दबाव न डालने का विकल्प चुना, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन की रणनीतिक आक्रामकता में, भारत के साथ उसकी पार्टनरशिप आगे बढ़ती रहे।
मोदी और उनकी सरकार के अन्य अगुवा चेहरे बढ़ चढ़ कर बयानबाज़ी करने को मज़बूर हुए और भारत से अमेरिकी निर्यात और निवेश के लिए अपने बाज़ार को पूरी तरह खोलने की ट्रंप की मांगों से भारतीय किसानों और डेयरी उत्पादकों के हितों की रक्षा करने के लंबे लंबे दावे किए। हालांकि भारत की कुल जीडीपी में कृषि का महज 15 प्रतिशत हिस्सा है जबकि कुल आबादी का 45 प्रतिशत से अधिक हिस्सा अपनी आजीविका के लिए इसपर निर्भर है। भारत सरकार और बुर्जुआ वर्ग को इस बात का डर है कि अमेरिकी कृषि निर्यातों के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को खोलने के आर्थिक और सामाजिक रूप से विस्फोटक नतीजे हो सकते हैं और यह करोड़ों ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों की आमदनी को और निचोड़ कर रख देगा।
आने वाले हफ़्तों और महीनों में भारत-अमेरिका संबंधों में चाहे जो भी संकट आए, यह एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की भू-राजनीतिक व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है और इसका प्रमुख निर्माता अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने वैश्विक दबदबे को पुनः स्थापित करने के लिए विध्वंसकारी गिरोह का नेतृत्व कर रहा है। व्यापार और भू-राजनीतिक संबंधों में जो चल रहा है वह जंगल का कानून है जहां हर पूंजीवादी राज्य और शासक वर्ग, बेरहमी से अपने हितों को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।
भारत और ब्राज़ील का एक साथ ट्रंप के ट्रेड वॉर के निशाने पर आना, निश्चित रूप से कोई संयोग नहीं है, भले ही 50 प्रतिशत टैरिफ़ लगाने के पीछे बताई गई मंशाएं बिल्कुल अलग-अलग हों। ब्राज़ील के मामले में तो ट्रंप उसकी सरकार को अस्थिर करने के लिए सीधे दख़ल दे रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि वह उनके फ़ासीवादी सहयोगी, पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो पर सैन्य तख़्तापलट की कोशिश के लिए मुकदमा चलाना बंद करे।
मोदी अति-दक्षिणपंथी हिंदू सांप्रदायिकता के शक्तिशाली नेता हैं और ब्राज़ील के उलट ट्रंप के राजनीतिक-वैचारिक सहयोगी हैं। भारत और ब्राज़ील में जो समानता है, वह है वॉशिंगटन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने की उनकी कोशिशें, जिनमें दोनों की सेनाओं का पेंटागन के साथ तालमेल बढ़ाना शामिल है, जबकि दोनों ही 'रणनीतिक स्वायत्ता' भी बनाए रखना चाहते हैं, अपने अपने क्षेत्रों में दबदबा क़ायम करना चाहते हैं और महशक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को आकार देना चाहते हैं।
वे दोनों रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ ब्रिक्स के संस्थापक सदस्य भी हैं। ट्रंप प्रशासन ने ब्रिक्स के प्रति अपनी दुश्मनी ज़ाहिर कर दी है, खासकर वैश्विक व्यापार में डॉलर की भूमिका को कम करने के उसके प्रयासों को लेकर। ट्रंप ने स्वीकार किया है कि अगर अमेरिकी डॉलर विश्व की रिज़र्व मुद्रा का दर्जा खो देता है तो यह जंग में हार के बराबर होगा।
बिना किसी अपवाद के, दुनिया भर में पूंजीवादी शासक वर्ग, ट्रेड वॉर और भू-राजनीतिक संघर्ष के तीख़ेपन यानी साम्राज्यवादी नेतृत्व में, विश्व के फिर से बंटवारे की प्रतिक्रिया में मज़दूर वर्ग पर हमले को तेज़ कर रहे हैं और शासन के निरंकुश तरीक़ों को अपनाने की ओर बढ़ रहे हैं।
मोदी का 15 अगस्त को भारतीय स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया भाषण एक कोरा फ़ासीवादी बकवास था, जिसमें उन्होंने दक्षिणपंथ की ओर और झुकाव का संकेत दिया। ट्रंप या अमेरिका का नाम लिए बगैर उन्होंने निवेशक परस्त 'सुधारों' की एक नई लहर की ज़रूरत का ज़िक्र करते हुए टैरिफ़ के ख़तरे का परोक्ष रूप से ज़िक्र किया। इसके साथ ही, उन्होंने पाकिस्तान को दी गई युद्धोन्मादी धमकियों का भी ज़िक्र किया, जिसमें निलंबित सिंधु जल संधि को स्थायी रूप से रद्द करने की क़सम खाने और 'घुसपैठियों' (बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासियों) के ख़िलाफ़ हिंदू सांप्रदायिकतावादी उकसावेबाज़ी शामिल थी, जिन्हें उन्होंने 'देश की अखंडता, एकता और प्रगति' के लिए ख़तरा बताया।