यह अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख The mass job cuts at TCS and the way forward for Indian IT workers का है, जो 24 सितंबर 2025 को प्रकाशित हुआ था।
भारत की सबसे बड़ी आईटी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (टीसीएस) ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी छंटनी शुरू की है, जिसमें लगभग 12,000 नौकरियां खत्म कर दी गईं। यह उनके वैश्विक कार्यबल का करीब 2 फ़ीसदी है। ट्रेड यूनियनों और मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि असली संख्या इससे भी ज़्यादा हो सकती है।
ये छंटनी ऐसे समय में हो रही है जब टीसीएस हर तिमाही 120 अरब रुपये (1.3 अरब अमेरिकी डॉलर) से ज़्यादा का मुनाफ़ा कमा रही है और मुनाफ़े की दर लगभग 20 फ़ीसदी बनी हुई है।
19 अगस्त को आईटी कर्मचारियों ने देशभर के प्रमुख शहरों में, टीसीएस के दफ़्तरों के बाहर विरोध प्रदर्शन किया, जिनमें चेन्नई, बेंगलुरु, पुणे और हैदराबाद शामिल थे। ये प्रदर्शन सीमित थे और इन्हें स्टालिनवादी नेतृत्व वाली सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) से जुड़े एक यूनियन के समर्थन में आयोजित किया गया था, लेकिन फिर भी ये अहम रहे और इससे संकेत मिलता है कि आईटी कर्मचारियों का एक हिस्सा सामूहिक कार्रवाई (विरोध प्रदर्शन, हड़ताल) की ज़रूरत को समझने लगा है और ख़ुद को मेहनतकश वर्ग का हिस्सा मानने लगा है। लंबे समय तक कॉरपोरेट दफ़्तरों के दरो-दीवार के पीछे अलग-थलग रखे गए और मीडिया व कंपनियों द्वारा “मिडिल क्लास” कहे गए आईटी कर्मचारी अब वर्ग संघर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।
इन प्रदर्शनों ने टीसीएस के रवैये के प्रति गहरी नाराज़गी को उजागर किया, जो उन कर्मचारियों की रोज़ी-रोटी छीनने पर उतारू है, जिन्होंने कुशलता हासिल करने के लिए अक्सर भारी मुश्किलें झेली हैं। साथ ही इसने आईटी दिग्गज कंपनी की मुनाफ़ाख़ोरी की बेक़रारी को सामने ला दिया है। लेकिन यूनाइट (यूनियन ऑफ़ आईटी एंड आईटीईएस एम्प्लाईज़) के कर्मचारी नेताओं ने यह सुनिश्चित किया कि ये कार्रवाइयां केवल रस्मी ही रहें। उन्होंने ग़ुस्से को सुरक्षित और सतही प्रदर्शनों तक सीमित कर दिया और बड़े कॉरपोरेट परस्त सरकारी अधिकारियों से मज़दूरों के पक्ष में दख़ल देने की अपील तक समेट दिया।
आईटी कर्मचारियों पर हो रहे हमले, दरअसल वैश्विक दबावों से जुड़े हुए हैं। टीसीएस और उसकी प्रतिद्वंद्वी एक्सेंचर, आईबीएम, अमेज़ॉन वेब सर्विसेज़ और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) और क्लाउड सेवाओं में अरबों डॉलर के ठेके हासिल करने के लिए होड़ कर रही हैं। ये कंपनियां अपने मुनाफ़े बढ़ाने के लिए नौकरियां ख़त्म करती हैं और अपने वैश्विक ग्राहकों को सस्ते ऑफ़र देती हैं।
इसके अलावा, यह हमला अंतरराष्ट्रीय तनावों से और गहरा गया है, ख़ासकर वॉशिंगटन के ट्रेड वॉर से। ट्रंप प्रशासन, जिसने पहले ही भारत के मैन्युफ़ैक्चरिंग निर्यात पर 50 फ़ीसदी का दंडात्मक टैरिफ़ लगा दिया था, अब सेवाओं पर भी, जिनमें भारतीय आईटी सेवाएं शामिल हैं, इसी तरह के टैरिफ़ लगाने की धमकी दे रहा है। भारतीय आउटसोर्सिंग कंपनियों का सबसे बड़ा बाज़ार अमेरिका है। टीसीएस और इनफ़ोसिस जैसी कंपनियों ने इन दबावों का सामना कर्मचारियों को और ज़्यादा निचोड़कर किया है यानी उनसे लंबे समय तक काम कराकर, वेतन काटकर और एआई का इस्तेमाल करके नौकरियां ख़त्म करके।
यह सिर्फ़ भारत की विशेष स्थिति नहीं है बल्कि वैश्विक कॉरपोरेट हमले का हिस्सा है। अमेरिका में ओरेकल और यूरोप की अन्य बड़ी कंपनियों ने भी इसी तरह की बड़े पैमाने पर छंटनियां की हैं। दूसरी ओर, ओरेकल के सीईओ और ट्रंप समर्थक लैरी एलिसन की संपत्ति इस महीने की शुरुआत में सिर्फ़ एक दिन में 100 अरब डॉलर बढ़ गई, जिससे वह दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए।
आईटी कर्मचारियों पर हमला सिर्फ़ मौजूदा स्टाफ़ की छंटनी तक सीमित नहीं है। पूरे सेक्टर में हायरिंग बुरी तरह गिर रही है। हाल की रिपोर्टों से पता चलता है कि कुल भर्ती में 2–3 फ़ीसदी की गिरावट आई है। सबसे बड़ी छह आईटी कंपनियों, जिनमें टीसीएस और इनफ़ोसिस शामिल हैं, ने हाल की एक तिमाही में सिर्फ़ 3,800 कर्मचारियों की भर्ती की है, जो पिछले समय की तुलना में चौंकाने वाली 72 फ़ीसदी गिरावट है।
जुलाई और अगस्त के बीच टेक हायरिंग में और 10 फ़ीसदी की गिरावट आई और पूरे देश में सिर्फ़ 43,000 नौकरियों के अवसर खुले। यह संख्या 2024 की इसी अवधि की तुलना में लगभग 25% कम है और 2022 की तुलना में 40% से ज़्यादा कम है। कंपनियां विस्तार नहीं कर रही हैं, बल्कि सिमट रही हैं। वे सिर्फ़ ज़रूरी पदों पर ही भर्तियां कर रही हैं और बचे हुए स्टाफ़ से ज़्यादा “उपयोग दर” निकाल रही हैं यानी अधिक से अधिक उत्पादकता हासिल करने पर ज़ोर दे रही हैं।
यह हायरिंग फ़्रीज़ नए ग्रैजुएट्स के लिए बेहद विनाशकारी साबित हो रही है। विश्लेषकों का अनुमान है कि 2025 की दूसरी छमाही में आईटी कंपनियां अनुमानित संख्या से 1.5 लाख कम कर्मचारियों को ही नौकरी पर रखेंगी। आईटी सेक्टर में बड़े पैमाने पर सुरक्षित व्हाइट-कॉलर नौकरियों का वादा हवा हो रहा है, जबकि कंपनियां एक ही समय में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई), मशीन लर्निंग और क्लाउड प्रोजेक्ट्स में निवेश का ढिंढोरा पीट रही हैं। इसका नतीजा एक बेहद क्रूर विरोधाभास के रूप में सामने आया है- हज़ारों-लाखों नौकरियां ख़त्म की जा रही हैं या रोकी जा रही हैं, जबकि मांग सिर्फ़ सीमित “उपयुक्त” टैलेंट तक सीमित कर दी गई है।
भारतीय आईटी ग्रैजुएट्स के भविष्य को और अंधकारमय बना रही है ट्रंप प्रशासन की H-1B वीज़ा पर रोक लगाने और उस पर 1,00,000 डॉलर की फ़ीस थोपने की योजना, जो उसके “अमेरिका फ़र्स्ट” राष्ट्रवाद और ज़ेनोफ़ोबिया (बाहरी लोगों के ख़िलाफ़ भावना) को भड़काने की नीति का हिस्सा है।
एआई और ऑटोमेशन को मानव ज्ञान की असाधारण प्रगति माना जाता है लेकिन ये अब तेज़ी से कर्मचारियों के ख़िलाफ़ हथियार की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ये हो रहा है उन तमाम उद्योगों में, जिनमें आईटी और आईटी-इनेबल्ड सर्विस सेक्टर भी शामिल हैं। एल्गोरिद्म का इस्तेमाल यह तय करने के लिए किया जाता है कि कौन “काम का” है और कौन “बेकार”। मॉनिटरिंग सॉफ़्टवेयर हर पल रिकॉर्ड करता है और कामों को छोटे-छोटे, आसानी से दोहराए जा सकने वाले हिस्सों में बांटा जाता है ताकि लागत घटाई जा सके। इस प्रक्रिया को “डिज़िटल टेलरिज़्म” कहा जा रहा है।
कॉरपोरेट जगत की “कार्य क्षमता” (एफ़िशिएंसी) की बातें असल में आईटी कर्मचारियों पर एक निर्मम हमला साबित हो रही हैं। कर्मचारियों से कहा जाता है, “इस्तीफ़ा दो, नहीं तो हम तुम्हें बुरा फ़ीडबैक देंगे।” इस तरह उन्हें धमकाया जाता है ताकि भविष्य में उनके लिए कहीं और नौकरी पाना और भी मुश्किल हो जाए।
एक आम तरीक़ा है कि अनुभवी, बेहतर वेतन पाने वाले कर्मचारियों की छंटनी करके उनकी जगह मामूली वेतन पाने वाले नए कर्मचारियों को रखना।
बड़े पैमाने पर छंटनी की घोषणा के बाद, टीसीएस ने चार सालों में सबसे कम वेतन वृद्धि की घोषणा की, जो औसतन 4.5 से 7 प्रतिशत के बीच थी।
इसी दौरान, सीईओ के. कृतिवासन को 26.5 करोड़ रुपये या 31.8 लाख अमेरिकी डॉलर का सालाना वेतन मिला, जो टीसीएस में मिलने वाले औसत वेतन का लगभग 330 गुना है। ऐसी वास्तविकताएं पूंजीवाद की नंगी सच्चाई को उजागर करती हैं- वफ़ादारी और दशकों का अनुभव कुछ भी मायने नहीं रखता, जबकि अधिकारी और शेयरधारक लगातार पैसा बनाते जा रहे हैं।
एक अन्य बड़े भारतीय आईटी समूह, इनफ़ोसिस ने भी यही रास्ता अपनाया है। इस साल की शुरुआत में, इसने चुपचाप सैकड़ों ट्रेनी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। इसके संस्थापक, नारायण मूर्ति ने हाल ही में 'राष्ट्रीय उत्पादकता' बढ़ाने के लिए 70 घंटे का काम करने की वक़ालत की थी।
कर्नाटक में कॉर्पोरेट लॉबी के आगे झुकते हुए और बड़े व्यवसायों का खुलकर साथ देते हुए कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने, बेंगलुरु के आईटी क्षेत्र में काम के घंटे बढ़ाने का क़दम उठाया है। चाहे हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) हो, कांग्रेस पार्टी हो, या विभिन्न क्षेत्रीय दल हों, भारत की केंद्र और राज्य सरकारें ये सभी मिलकर मज़दूरों के अधिकारों के ख़िलाफ़, सभी आईटी कंपनियों के मुनाफ़े को एक सुर में बचाती हैं।
'काम और ज़िंदगी में संतुलन' की तलाश में मज़दूरों के इस्तीफ़े की वायरल कहानियां असंतोष की गहराई को उजागर करती हैं। यहां तक कि मुख्यधारा का मीडिया, जो कॉर्पोरेट हितों का मुखपत्र है, अब स्वीकार करता है कि कई आईटी कर्मचारी यूनियन में शामिल होने पर बातें करने लगे हैं।
आईटी कर्मचारियों का अलगाव टूटने लगा है। 9 जुलाई, 2025 की अखिल भारतीय आम हड़ताल में कुछ आईटी कर्मचारियों ने हिस्सेदारी की थी और यह लंबे समय से उनके अलग थलग रहने और यूनियनों की ओर से कोई संगठनात्मक समर्थन की कमी के बावजूद उन्होंने ख़ुद किया। इसने मज़दूरों के जुझारूपन और स्वतंत्र आधार पर मज़दूर वर्ग के अन्य वर्गों के साथ एकजुट होने की उनकी क्षमता, दोनों को उजागर करता है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई से जुड़ी स्टालिनवादी यूनियनें, औद्योगिक और राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर प्रतिरोध को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दशकों से, इन संगठनों ने भारी उद्योग से लेकर सरकारी सेवा तक, हर क्षेत्र में हड़तालों को अलग-थलग करने में भूमिका निभाई और धोखा दिया है और दूसरी ओर मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से पूंजीवादी दलों के चंगुल में फंसाया है।
पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में सत्ता में रहते हुए, स्टालिनवादी सीपीएम और सीपीआई ने निजीकरण की कठोर नीतियां लागू की हैं। पश्चिम बंगाल में, अपनी स्वघोषित 'निवेश-समर्थक' नीतियों के तहत, सीपीएम के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार ने आईटी और आईटीईएस कर्मचारियों की हड़ताल को अवैध घोषित कर दिया था।
राष्ट्रीय स्तर पर, अति-दक्षिणपंथी भाजपा से लड़ने के नाम पर, वे कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के झंडे का समर्थन करते हैं, जो मोदी सरकार के लड़खड़ाने पर शासक वर्ग को एक दक्षिणपंथी विकल्प प्रदान करता है। ऐसा गठबंधन जो भारत-अमेरिका सैन्य-रणनीतिक गठबंधन और खर्च कटौती, निजीकरण और अनिश्चित ठेका-मजदूरी को बढ़ावा देकर मज़दूरों के शोषण को बढ़ाने के प्रति बीजेपी से कम प्रतिबद्ध न हो।
आईटी कर्मचारी तेज़ी से यह समझ रहे हैं कि उनकी हालत मैन्यूफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में असेंबली लाइन पर काम करने वाले मज़दूरों से ज़्यादा अलग नहीं है, जिन्हें लंबे समय से मनमाने ढंग से नौकरी से निकाले जाने और क्रूर कामकाजी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। आईटी कर्मचारियों की समस्याओं का समाधान केवल वर्ग संघर्ष के विकास और मज़दूर वर्ग के एक स्वतंत्र औद्योगिक और राजनीतिक आंदोलन के निर्माण से से ही हो सकता है।
आगे का रास्ता बुर्जुआ अदालतों या सरकारों से अपील, नियामक सुधारों या मौजूदा यूनियन तंत्र के पीछे पीछे चलने पर निर्भर नहीं हो सकता। इस संघर्ष को छेड़ने के लिए, आईटी कर्मचारियों को स्वतंत्र रूप से संगठित होना होगा और उन मांगों के लिए लड़ना होगा जो सीधे तौर पर पूंजी की तानाशाही को चुनौती देती हैं-
- न कोई छंटनी और न ही कोई जबरन इस्तीफ़ा।
- जबरदस्ती मूल्यांकन प्रणालियों और उत्पीड़न का अंत।
- सभी ठेका नौकरियों को स्थायी पदों में बदलना।
- आईटी दिग्गज कंपनियों का कर्मचारियों के नियंत्रण में सार्वजनिक उद्यमों में रूपांतरण, एक लोकतांत्रिक रूप से नियोजित समाजवादी अर्थव्यवस्था के हिस्से के रूप में, जिसका उद्देश्य निजी लाभ के बजाय मानवीय ज़रूरतों को पूरा करना है।
इसके लिए हर आईटी कार्यालय में पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक दलों और यूनियनों से स्वतंत्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूर वर्ग के अन्य वर्गों के साथ जुड़ने वाली, रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियों का गठन ज़रूरी है। आईटी कर्मचारियों के सामने जो संकट है, जो छंटनी और भर्तियों के पतन से और बाहर आ गया है, उससे पता चलता है कि पूंजीवाद केवल असुरक्षा, निरंतर निगरानी और लंबे समय तक काम करने की स्थिति ही दे सकता है। आईटी कर्मचारियों का प्रतिरोध तभी सफल होगा जब उसे एक जागरूक, अंतरराष्ट्रीय और समाजवादी नेतृत्व दिया जाएगा।