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हफ़्ते भर झड़प के बाद पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान नाज़ुक संघर्षविराम पर सहमत

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख Pakistan and Afghanistan agree to shaky truce after week of clashes का है जो 24 अक्टूबर 2005 को प्रकाशित हुआ था।

एक हफ़्ते से भी ज़्यादा समय तक हुई सैन्य झड़पों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के बाद पिछले सप्ताहांत क़तर और तुर्की की मध्यस्थता में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक नाज़ुक संघर्ष विराम पर सहमति बनी है।

पाकिस्तान में सेना के दबदबे वाली सरकार और अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के रिश्ते पिछले कुछ सालों में लगातार ख़राब हुए हैं। यहां तक कि मौजूदा सीज़ फ़ायर के बीच, इस्लामाबाद और काबुल ने एक दूसरे पर भड़काऊ बयानबाज़ी करना जारी रखा है।

पाकिस्तान ने तालिबान सरकार पर आरोप लगाए हैं कि वो उसके धुर प्रतिद्वंद्वी भारत के साथ गलबहियां कर रहा है और पाकिस्तान-तालिबान को मदद करने के लिए नई दिल्ली के साथ मिलकर काम कर रहा है, जोकि एक इस्लामी कट्टरवादी विद्रोही ग्रुप है जो पाकिस्तान के पारंपरिक पश्तून भाषी कबाइली इलाक़ों में सक्रिय है। इस सदी के पहले दशक में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) अफ़ग़ान युद्ध के पाकिस्तान तक फैलने के बाद, पाकिस्तानी सरकार और अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा विरोधियों को दबाने के लिए अख़्तियार किए गए क्रूर तरीकों के जवाब में उभरा। यह विरोध इसलिए भी था क्योंकि अफ़ग़ान युद्ध में इस्लामाबाद शुरू से ही एक प्रमुख भागीदार था।

इस बीच तालिबान ने पाकिस्तान पर वॉशिंगटन के साथ मिलकर उसे धमकाने और उसे कमज़ोर करने का आरोप लगाया क्योंकि उसने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की उस मांग को ख़ारिज़ कर दिया था जिसमें बगराम एयर बेस को अमेरिका को वापस लौटाने को कहा गया था। इस एयर बेस को अफ़ग़ानिस्तान में कब्ज़े के दो दशकों के दौरान काबुल के बाहरी हिस्से में बनाया गया था।

ट्रंप ने साफ़ तौर पर इस एयर बेस को अमेरिका के हवाले करने को, चीन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने के वॉशिंगटन की योजना से जोड़ा था। पिछले महीने ही ट्रंप ने कहा था, “इस बेस को वापस चाहने के पीछे एक कारण ये भी है कि यह चीन की उस जगह से महज एक घंटे की दूरी पर है जहां वो परमाणु हथियार बनाता है।“

लंबे समय से पाकिस्तान और अमेरिका के संबंध बहुत ख़राब हालात में थे। हालांकि जब पिछले जनवरी में ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने उसके बाद से दोनों के संबंधों में काफ़ी सुधार देखा गया। ट्रंप दो बार पाकिस्तान के चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ मार्शल आसिम मुनीर की व्हाइट हाउस में ज़बानी कर चुके हैं और सत्तारूढ़ पार्टी मुस्लिम लीग (नवाज़) की अगुवाई वाली सरकार को अपना पूरा समर्थन दिया है। अमेरिका के संभावित डिक्टेटर ने पाकिस्तान के साथ रेयर अर्थ मिनरल्स और ऊर्जा समझौतों का बढ़चढ़ कर बखान किया है। ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि इस्लामाबाद ने अमेरिका को अरब सागर में पासनी बंदरगाह बनाने का न्योता दिया है, जो ग्वादर से महज 75 किलोमीटर पूरब में स्थित है, जोकि चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) का हब है।

अफ़ग़ानिस्तान के खोस्त प्रांत के ज़ज़ई मैदान ज़िले में सीमा पर अफ़ग़ान और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच रात भर हुई झड़पों के बाद एक पहाड़ी से उठता धुआं, रविवार, 12 अक्टूबर, 2025. (एपी फ़ोटो/सैफ़ुल्लाह ज़हीर) [AP Photo/Saifullah Zahir]

दरअसल अफ़ग़ानिस्तान के साथ सैन्य तनाव 9 अक्टूबर को तब शुरू हुआ जब पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का सीधा उल्लंघन करते हुए, काबुल, ख़ोस्त, जलालाबाद और पक्तिका के पास कुछ ठिकानों पर कई हवाई हमले किए जिन्हें उसने टीटीपी के ठिकाने बताए। दो दिन बाद अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान की कई सीमा चौकियों पर हमला बोलकर जवाब दिया। उसने दावा किया कि कम से कम दो दर्जन चौकियों को उसने नष्ट कर दिया। 12-13 अक्टूबर को सीमा पर दोनों तरफ़ धुआंधार फ़ायिरंग हुई और पाकिस्तान ने दावा किया कि उसने 200 तालिबान और उनसे जुड़े लड़ाकों को मार गिराया। साथ ही उसने स्वीकार किया कि उसके 23 सैनिक भी मारे गए। उधर, काबुल ने कहा कि उसके बलों ने 50 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को मारा था। 15 अक्टूबर को फिर से सीमा पर दोनों ओर फ़ायरिंग शुरू हो गई और दो दिनों तक चलती रही। इस बीच पाकिस्तान ने पक्तिका पर ताज़ा हवाई हमले किए जिनमें बच्चों समेत 10 नागरिक मारे गए।

शनिवार यानी 18 अक्टूबर को दोनों पक्ष 48 घंटे के सीज़फ़ायर के लिए सहमत हो गए, लेकिन फिर से झड़प के बाद दोहा में संधि वार्ता के बाद इसे स्थाई संघर्षविराम में तब्दील कर दिया गया। क़तर के विदेश मंत्री के बयान के अनुसार, 'काबुल और इस्लामाबाद तत्काल सीज़फ़ायर और दोनों देशों के बीच लंबे समय तक शांति और स्थिरता के लिए एक तंत्र बनाने पर सहमत हो गए हैं।'

एक हफ़्ते से भी ज़्यादा समय से चल रही सैन्य दुश्मनी ने पहले से ही बहुत अधिक ग़रीबी और भुखमरी से जूझ रहे इस इलाक़े में आम जन की पीड़ा को और बढ़ा दिया है। कई दिनों से, दोनों देशों के बीच मुख्य व्यापार मार्ग- तोरखम और चमन क्रॉसिंग और अन्य सीमा चौकियां बंद हैं, जिससे पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच खाद्य आपूर्ति और अन्य सामान ले जाने वाले हज़ारों ट्रक फंसे हुए हैं।

अफ़ग़ानिस्तान के काबुल में दो पाकिस्तानी ड्रोन हमलों से क्षतिग्रस्त एक घर से मलबा हटाते निवासी, 16 अक्टूबर, 2025. (एपी फ़ोटो/सिद्दीकुल्लाह अलीज़ई) [AP Photo/Siddiqullah Alizai]

पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान संघर्ष इस बात को रेखांकित करता है कि दक्षिण एशिया का क्षेत्र, किस हद तक भू-राजनीतिक बारूद के ढेर में तब्दील होता जा रहा है, क्योंकि उपनिवेशवाद और 1947 के दक्षिण एशिया के सांप्रदायिक विभाजन में निहित दीर्घकालिक प्रतिक्रियावादी होड़, दुनिया के फिर से बंटवारे के साम्राज्यवादी प्रयास और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता में बुरी तरह उलझ गई है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिहाज से, चीन को घेरने की उसकी रणनीतिक और सैन्य परियोजना के लिए यह क्षेत्र बहुत अहम बन गया है, जिसमें हिंद महासागर में दबदबा क़ायम रखना भी शामिल है, जहां से दुनिया के सबसे अहम समुद्री मार्ग होकर गुजरते हैं, जो चीन की अर्थव्यवस्था की नैया पार लगाने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।

पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान पर उसी दिन बमबारी की जिस दिन अफ़ग़ान विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी ने एक सप्ताह लंबा अपना भारत भ्रमण शुरू किया था। इस बमबारी का मक़सद साफ़ था- नई दिल्ली और काबुल दोनों को स्पष्ट संदेश देना।

आज तक सिर्फ रूस ने तालिबान की अफ़ग़ानिस्तान सरकार को मान्यता दी है। हालांकि, इस भ्रमण ने भारत-अफ़ग़ान के बीच महत्वपूर्ण गर्मजोशी को पैदा किया और भारत ने संयुक्त बयान में अच्छी ख़ासी मानवीय मदद और स्वास्थ्य मदद देने का वादा किया।

संयुक्त बयान ने दोनों देशों के बीच बढ़ते रक्षा सहयोग का संकेत दिया है। भारत ने, पिछले अप्रैल में भारत के कब्ज़े वाले कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले की काबुल की ओर से की गई निंदा की तारीफ़ की। नई दिल्ली ने पहलगाम हमले को, पाकिस्तान पर सैन्य हमले का अभियान चलाने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया है। और इस सैन्य अभियान की वजह से सीमा पर चार दिन तक युद्ध चला, जिसने दोनों परमाणु हथियार संपन्न देशों को खुले युद्ध की कगार पर ला खड़ा किया था।

अपनी ओर से तालिबान सरकार ने वादा किया कि वो 'भारत के ख़िलाफ़ किसी भी ग्रुप या व्यक्ति को अफ़ग़ान की धरती इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं देगा।' अफ़ग़ानिस्तान ने भारत की “संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता” का “सम्मान” करने की प्रतिबद्धता के साथ जम्मू और कश्मीर पर भारत के दावे के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके इस क़दम पर इस्लामाबाद ने आपत्ति जताई।

भारतीय कब्ज़े वाले जम्मू और कश्मीर (भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य या क्षेत्र) और आज़ाद या पाकिस्तानी कब्ज़े वाले कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के प्रतिस्पर्धी दावे लंबे समय से उनकी प्रतिक्रियावादी रणनीतिक होड़ का केंद्र बिंदु रहे हैं।

ऐसे में भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच क़रीबी इस्लमाबाद के डर को और बढ़ा देगा, ख़ासतौर पर जब भारत की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली हिंदू वर्चस्ववादी बीजेपी सरकार ने बार बार एलान किया है कि मई में इसने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ऑपरेशन सिंदूर के नाम से जो युद्ध का मोर्चा खोला था, उसे बस स्थगित किया गया है। नई दिल्ली ने पाकिस्तान को सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए ज़रूरी पानी न देने और सिंधु जल संधि से भी हटने की घोषणा की है जो ऐसा क़दम है जिससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को ख़तरा पैदा हो सकता है।

कुछ समय से इस्लाबाद, अफ़ग़ानिस्तान पर टीटीपी विद्रोहियों को शरण देने और भारत के साथ मिलकर पाकिस्तान को अस्थिर करने के लिए उन्हें प्रॉक्सीज़ के रूप में इस्तेमाल करने की साज़िश रचने काआरोप लगाता रहा है। अफ़ग़ानिस्तान से पाकिस्तान की 2,500 किलोमीटर लंबी ढीली ढाली सीमा लगती है। वह काबुल और नई दिल्ली पर बलोच जनजातीय राष्ट्रवादी अलगाववादी विद्रोहियों को मदद देने का भी आरोप लगा रहा है। इस ग्रुप की अगुवाई बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) संगठन है। बीएलए लंबे समय से चीन और सीपेक के प्रति अपनी दुश्मनी पर ज़ोर देकर वॉशिंगटन का समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहा है।

पाकिस्तान की सेना और पूंजीवादी अभिजात्य वर्ग राष्ट्रीय-जनजातीय और सांप्रदायिक विभाजनों को लेकर परंपरागत रूप से जैसा सलूक करते हैं, उन्होंने, भारी हिंसा और दमन, सैन्य दंड और मज़दूर वर्ग और उत्पीड़ित जनता की लोकतांत्रिक और सामाजिक आकांक्षाओं को कुचलने पर ज़ोर बढ़ा दिया है। जबकि इन विभाजनों की जड़ें साम्राज्यवादी दमन और सामाजिक ग़ैरबराबरी में हैं। दूसरी ओर भारत में अपने पूंजीवादी प्रतिद्वंद्वियों की तरह पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने पड़ोसी के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की धमकी के साथ, सामाजिक ग़ुस्से और हताशा को प्रतिक्रियावादी दिशा में मोड़ने के एक साधन के रूप में साम्प्रदायिक रंग में रंगे राष्ट्रवाद को और भड़काने का काम किया है।

पाकिस्तानी सत्ताधारी वर्ग लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने की मंशा रखता रहा है ताकि इसका इस्तेमाल भारत के साथ अपनी प्रतिद्वंद्विता में 'रणनीतिक गहराई' प्रदान करने के लिए किया जा सके। और इसकी शुरुआत 1970 के दशक के उत्तरार्ध से शुरू होती है, जब इसकी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान के सोवियत समर्थक शासन के ख़िलाफ़ इस्लामी विपक्ष को संगठित करने और हथियारबंद करने की वॉशिंगटन की योजना में अहम भूमिका निभाई थी।

अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी कब्ज़े के आख़िरी चरणों में, इस्लामाबाद ने इस मक़सद को पूरा करने के लिए काबुल में अमेरिका की कठपुतली सरकार और वॉशिंगटन के बीच एक 'संक्रमणकालीन' सरकार के लिए समझौता कराने की कोशिश की थी। लेकिन जुलाई-अगस्त 2021 में अमेरिकी सैन्य बलों की वापसी के साथ कठपुतली सरकार के लिए समर्थन ख़त्म हो जाने पर यह योजना धरी की धरी रह गई।

पाकिस्तान और काबुल में नए पश्तून-प्रभुत्व वाले तालिबान शासन के बीच संबंध जल्दी ही बिगड़ गए, क्योंकि तालिबान धमकाने के पाकिस्तान के प्रयासों पर रोक लगा दी, ब्रिटिश-साम्राज्यवादियों द्वारा थोपी गई डूरंड रेखा को दोनों देशों के बीच सीमा के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया और पाकिस्तान के पश्तून-बहुल क्षेत्रों को शामिल करते हुए ग्रेटर पख़्तूनख्वाह (पश्तूनों की भूमि) के लिए अपने समर्थन का संकेत दिया।

इसके जवाब में इस्लामाबाद ने पूरी सीमा पर बाड़ लगा दी, परिवारों और समुदायों को एक दूसरे से अलग कर दिया और लाखों अफ़ग़ान शरणार्थियों को देश से निकालने का अभियान छेड़ दिया, जिनमें से अधिकांश दशकों से पाकिस्तान में रहते आए थे या वहीं जन्मे थे।

चीन इसके बाद ईरान, क़तर, सऊदी अरब, तुर्की और क्षेत्र के अन्य देशों के साथ मिलकर पाकिस्तान-अफ़ग़ान तनाव को कम करने का आह्वान कर रहा है। बीजिंग की पाकिस्तान के साथ लंबे समय से 'सदाबहार दोस्ती' रही है और चीन तालिबान के नेतृत्व वाले अफ़ग़ानिस्तान के साथ भी संबंध मज़बूत करने की कोशिश कर रहा है और उसने अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बनाने की पेशकश भी की है।

पाकिस्तान-अफ़ग़ान शांति वार्ता का अगला दौर शनिवार को तुर्की के इस्तांबुल में होना है। फिर भी, स्थिति बेहद विस्फोटक बनी हुई है।

अस्थिरता का एक प्रमुख कारण है अमेरिकी साम्राज्यवाद का चीन के उदय को नाकाम करने के अपने प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी मौके का फ़ायदा उठाने का अड़ियल रुख़। सदी की शुरुआत से ही, वॉशिंगटन ने भारत को आक्रामक रूप से लुभाया है, उसे रणनीतिक लाभ और उन्नत हथियारों से नवाजा है ताकि बीजिंग के ख़िलाफ़ अपने सैन्य-रणनीतिक हमले में उसका इस्तेमाल किया जा सके। पाकिस्तान ने और भी तीखी चेतावनी जारी की है कि अमेरिका ने क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बदल दिया है, जिससे भारत का हौसला बढ़ा है और उसके पास चीन के साथ और घनिष्ठ संबंध बनाने का कोई विकल्प नहीं बचा है।

अब, हालांकि, अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में अचानक आई गर्माहट से नई दिल्ली भले ही घबराई हुई न हो, लेकिन नाराज़ ज़रूर है। 19 प्रतिशत के साथ, पाकिस्तान पर अमेरिका का टैरिफ़ किसी भी दक्षिण एशियाई देश के मुकाबले सबसे कम है, जबकि ट्रंप ने ज़्यादातर भारतीय निर्यातों पर 50 प्रतिशत टैरिफ़ लगा दिया है, जिसका मक़सद उसे सस्ते रूसी तेल की ख़रीद बंद करने और मॉस्को के साथ अपनी दीर्घकालिक रणनीतिक साझेदारी को काफ़ी कम करने के लिए मजबूर करना है।

इस हफ़्ते एक टेलीविज़न साक्षात्कार में, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा मोहम्मद आसिफ़ ने भारत और अफ़ग़ानिस्तान, दोनों पर तीखा हमला करते हुए कहा, 'यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच युद्धविराम कब तक चलेगा। अफ़ग़ानिस्तान भारत का प्रॉक्सी बन गया है। ये हमले अफ़ग़ान विदेश मंत्री की भारत यात्रा के दौरान किए गए, जिसका साज़िश भारत कर रहा है। फ़िलहाल, टीटीपी काबुल का प्रॉक्सी है और काबुल भारत का प्रॉक्सी है। दरअसल, भारत इस समय पाकिस्तान की दोनों सीमाओं पर सक्रिय है।'

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और उनकी मुस्लिम लीग सरकार द्वारा सभी अफ़ग़ान शरणार्थी शिविरों को बंद करने और उनके प्रवास की अवधि को और आगे बढ़ाने से इनकार करने का फैसला आग में घी डालने का काम कर रहा है। अफ़ग़ान नागरिकों की 'वापसी' के लिए प्रधानमंत्री शरीफ़ के निर्देश में सीमा पर अतिरिक्त निकास चौकियां स्थापित करना भी शामिल है ताकि बाकी बचे लाखों शरणार्थियों को बाहर निकाला जा सके। यह नीति बेशक अफ़ग़ानिस्तान की पहले से ही विकट आर्थिक और सामाजिक स्थिति को और बदतर बना देगी, क्योंकि कई अफ़ग़ानों को न केवल ग़रीबी, बल्कि तालिबान शासन द्वारा उत्पीड़न और दमन का भी डर है।

क़ानूनी रूप से मान्यताप्राप्त अफ़ग़ान 'नागरिकों' को निर्वासित करना, चाहे उनके पाकिस्तान के साथ कितने भी मजबूत संबंध हों और डूरंड रेखा के दोनों ओर के लोगों के बीच सदियों से चले आ रहे पारस्परिक संबंध कुछ भी हों, इससे जनता के बीच नफ़रत, ग़ुस्सा और विभाजन ही बढ़ेगा - इन विभाजनों का फायदा एक ओर इस्लामी उग्रवादी उठाएंगे और दूसरी ओर पाकिस्तान के भ्रष्ट पूंजीवादी अभिजात वर्ग उठाएगा।

इस तनाव से आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता और सबसे ज़रूरी काम है- पूरे क्षेत्र में मज़दूर वर्ग और युवाओं में निहित एक युद्ध-विरोधी आंदोलन का निर्माण करना है, जिसका केंद्रीय मक़सद एक व्यापक साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष विकसित करना है। यह संघर्ष साम्राज्यवादी युद्ध, असमानता और उत्पीड़न के मूल कारण- पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने से अभिन्न रूप से जुड़ा है। इसे पूंजीपति वर्ग के सभी गुटों से पूरी तरह स्वतंत्र होकर और लियोन ट्रॉट्स्की द्वारा सबसे पहले प्रतिपादित स्थायी क्रांति के कार्यक्रम के आधार पर चलाया जाना चाहिए, जिसका मक़सद मरणासन्न पूंजीवाद को समाज के समाजवादी पुनर्गठन से बदल देना है। उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और कायर राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग द्वारा निर्मित प्रतिक्रियावादी राज्य सीमाओं से परे, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकशों के एकीकृत क्रांतिकारी संघर्ष और दक्षिण एशिया के समाजवादी संयुक्त राज्य की स्थापना के माध्यम से यह किया जाना चाहिए।

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