यह हिंदी अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख Structural collapse at power plant in Indian Special Economic Zone kills 9 construction workers का है जो 28 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित हुआ था।
तमिलनाडु के मिंजुर में एन्नोर स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (एसईज़ेड) में एक थर्मल पॉवर प्लांट के निर्माण स्थल पर एक अर्द्ध गोलाकार ढांचा ढह गया। इसकी वजह से असम के 9 प्रवासी मज़दूरों की मौत हो गई जबकि एक अन्य घायल हो गया।
स्टील का यह ढांचा क़रीब 45 मीटर ऊपर से गिरा और मज़दूर उसके साथ ही नीचे गिर कर दब गए। अधिकांश मज़दूरों की मौके पर ही मौत हो गई। घटना में बच गया एक मज़दूर किसी तरह स्टील के ढांचे को पकड़े रहा और बच गया।
मारे गए वर्करों के नाम हैं- मुन्ना खेमप्राई, सोरबोजीत थाउसेन, फाईबिट फ़ांग्लू, बिदायुम पोरबोसा, पबन सोरोंग, प्रायांतो सोरोंग, सुमन खरिकाप, दीपक रायजुंग और डिमराज थाउसेन।
घटना में मारे गए लोगों में से कोई भी वर्कर परमानेंट नहीं था। उन्हें पीस-रेट ठेके पर काम पर रखा गया था, उन्हें प्राविडेंट फ़ंड और बीमा कवरेज का अधिकार नहीं था और निर्माण स्थल के पास ही वो एक भीड़भाड़ वाली जगह पर रहते थे।
ये प्रवासी मज़दूर कॉरपोरेट मुनाफ़े की बलि चढ़ गए, जैसा दक्षिण एशिया, भारत और पूरी दुनिया में हर साल हज़ारों मज़दूरों के साथ होता है। इन मज़दूरों से ग़ुलामों की तरह काम कराया जाता है और उनका शोषण किया जाता है और उन्हें न्यूनतम अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। 14 अक्टूबर को बांग्लादेश की राजधानी ढाका में एक गार्मेंट फ़ैक्ट्री अनवर फ़ैशन में आग लग गई जिसमें 16 वर्कर मारे गए, जिनमें अधिकांश किशोर बच्चे थे। 10 अक्टूबर को अमेरिका के टेनेसी में एक हथियार बनाने वाली फ़ैक्ट्री एक्युरेट एनर्जेटिक सिस्टम्स (एईएस) में भीषण धमाका हुआ, इसमें भी 16 लोग मारे गए थे। ये सिर्फ हाल फिलहाल की दो घटनाओं के उदाहरण हैं, जो दिखाते हैं कि कैसे कॉरपोरेट मुनाफ़े की भूख ने इंसानी ज़िंदगियों को लील लिया।
मिंजुर थर्मल पॉवर प्लांट तमिलनाडु की राज्य सरकार की मालिकाने वाली कंपनी तमिलनाडु पॉवर जेनरेशन करपोरेशन लिमिटेड (टीएनजीईडीसीओ) का प्रोजेक्ट है। इसे बनाने का ठेका भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) को दिया गया था, जोकि पॉवर प्लांट बनाने वाली भारत की सरकारी कंपनी है। इसके बाद भेल ने इसका उप-ठेका बैंगलोर की एक फ़र्म मेटल कर्मा को दे दिया था, जिसने 40 वर्करों को काम पर रखा, जिनमें अधिकांश असम थे।
तमिलनाडु पुलिस को दी गई एफ़आईआर में टीएनजीईडीसीओ के सुप्रिटेंडिंग इंजीनियर ने मिंजुर निर्माण स्थल पर हुई दुर्घटना के लिए मेटल कर्मा पर पर्याप्त सुरक्षा उपाय न करने के आरोप लगाए। इसमें कोई दो राय नहीं है और यह 100 प्रतिशत सच है। लेकिन अंततः इस प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी तो टीएनजीईडीसीओ और भेल की थी, ये उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वे अपने निर्माण स्थल पर सुरक्षा का पूरा ध्यान रखने को सुनिश्चित करें। ये जोड़ना ज़रूरी है कि टीएनजीईडीसीओ और भेल, दोनों ही सरकारी कंपनी हैं और उनके पास संसाधनों की कमी नहीं है।
स्पष्ट रूप से ऐसी कोशिशें हो रही हैं कि ठेका सिस्टम में सबसे निचले स्तर के उप ठेकेदार को बलि का बकरा बना दिया जाए ताकि ज़िम्मेदार कॉरपोरेट और सरकारी अधिकारियों को क़ानून के शिकंजे से बचाया जा सके। यह सिर्फ क़ानूनी ज़िम्मेदारी से बचने और संभावित वित्तीय और इससे जुड़े अन्य खर्चों से बचने की ही कोशिश नहीं है, बल्कि यह पूरे उप-ठेकेदारी या निजीकरण की प्रक्रिया को भी बचाने की कोशिश है। उप-ठेकेदारी या निजीकरण के ज़रिए सरकारी और निजी कंपनियां उप ठेकेदारों, बहुत कम प्रशिक्षित और मामूली मज़दूरी में काम करने वाले ठेका मज़दूरों को लगाकर, अपने खर्च को कम करती हैं और अपने मुनाफ़े को बढ़ाती हैं।
लेकिन मिंजुर में हुए औद्योगिक जनसंहार पर भारी हंगामे के कारण, प्रशासन अपनी नाक बचाने के लिए कुछ सीमित उपाय करने पर मजबूर हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया की 13 अक्टूबर की रिपोर्ट के अनुसार, तीन ठेकेदारों को गिरफ़्तार करने के अलावा, भारी उद्योग मंत्रालय (एमएचआई) ने भेल के कई निदेशक स्तर के अधिकारियों के इस्तीफ़े के लिए दबाव डाला है और निलंबन सहित आगे की अनुशासनात्मक कार्रवाई की संभावना है।
टीएनजीईडीसीओ ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं की बढ़ती बेतहाशा संख्या का शिकार हो गया, जिनका ताल्लुक काम की गति तेज़ करने, कर्मचारियों की बहुत कम ट्रेनिंग और कर्मचारियों की कमी व भर्तियों से जुड़ा है। या तो टीएनजीईडीसीओ के अधिकारियों ने पॉवर प्लांट बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपे जाने वाले उप ठेकेदार के असुरक्षित काम कराने के तरीक़ों को नज़रअंदाज़ किया या बिल्कुल आंख मूंदे रहे। वे और उनके राजनीतिक आकाओं पर आख़िकार मज़दूरों की मौत की ज़िम्मेदारी बनती है क्योंकि वे ही हैं जो कॉस्ट कटिंग करके मुनाफ़े को बढ़ाने के अभियान की अगुवाई कर रहे हैं।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत कुटिल तरीक़े से हर मृतक मज़दूर के परिवार के लिए दो लाख रुपये और एकमात्र जीवित बचे व्यक्ति के लिए 50,000 रुपये के सांकेतिक मुआवज़े की घोषणा की है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भी आगे बढ़कर हर मृतक मज़दूर के परिवार को 10 लाख रुपये (12,000 डॉलर) की सहायता राशि देने की घोषणा की है।
हर बार रोके जा सकने वाली आपदा के बाद बार बार होने वाली ये खानापूर्ति, वास्तविक सुरक्षा उपायों का क्रूर विकल्प बन गई है। दरअसल सुरक्षा उपायों को निवेशकों को आकर्षित करने में बाधा के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इससे लागत बढ़ेगी और लाभ कम हो जाएगा।
साल 2020 में व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता (ओएसएचडब्ल्यूसी) की शुरूआत ने, स्वतंत्र सरकारी विभागों द्वारा निरीक्षण के बदले, सुरक्षा उपायों के नियम लागू करने को उद्योगों द्वारा खुद प्रमाणित करने की अनुमति देकर पुरानी श्रम सुरक्षा को ख़त्म कर दिया।
सभी निर्माण स्थलों, फ़ैक्ट्रियों और बिजली परियोजनाओं पर जानलेवा दुर्घटनाओं में भारी इजाफ़ा होने के बावजूद, तमिलनाडु सरकार ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए इन 'इज़ी ऑफ़ डूईंग बिज़नेसेज़' को बहुत आक्रामक तरीक़े से लागू किया। पूरे भारत में अपने सहोदरों और केंद्र में मोदी की हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली सरकार की तरह ही, राज्य सरकार ने इंसानी ज़िंदगियों पर घरेलू और विदेशी निवेशकों के मुनाफ़े के हित को वरीयता दी।
यह दुर्घटना केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दशकों से अपनाए गए नियमों को ढील देने, निजीकरण और लागत में कटौती की कोशिशों का सीधा परिणाम है, चाहे उनका नेतृत्व भाजपा, कांग्रेस पार्टी या तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) कर रही हो।
स्तालिनवादी पार्टियां, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीएम, एक बड़ी व्यापारिक तमिल जातीय-राष्ट्रवादी पार्टी डीएमके की करीबी सहयोगी हैं और नियमित रूप से 'सामाजिक न्याय' का झंडाबरदार होने का दावा करती हैं।
सीपीएम, सीपीआई और उनके ट्रेड यूनियन संगठनों- सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), ने मिंजुर दुर्घटना पर सोशल मीडिया पर औपचारिक बयान जारी किए हैं, जिससे पाखंड की बू आ रही है, क्योंकि स्तालिनवादियों ने केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर लगातार ऐसी सरकारों का समर्थन किया है, जिन्होंने ऐसी घातक असुरक्षित कार्य स्थितियों को बनाए रखने का काम किया है।
एक अक्टूबर को सीपीआई के सोशल मीडिया पोस्ट में इस त्रासदी को, मज़दूरों के जीवन और सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता की ज़रूरत के प्रति एक सबक़ बताया गया और 'जवाबदेही सुनिश्चित करने' के लिए क़दम उठाने का घुमा फिरा कर वादा किया गया था।
सीपीएम के तमिलनाडु सेक्रेटरी पी शानमुगम का भी बयान भी इसी तरह खोखला था। उन्होंने टीएनजीईडीसीओ और इसके ठेकेदार भेल को लापरवाही के लिए दोष दिया, जबकि सरकार से अपील की कि वो कम वेतन पाने वाले 'गेस्ट वर्करों' का इस्तेमाल बंद करे। उन्होंने भेल से 25 लाख रुपये के मुआवज़े की अपील की, जो राज्य और केंद्र सरकारों की ओर से घोषित 10 लाख रुपये और दो लाख रुपये की मामूली राशि से अधिक है।
ये पार्टियां और उनकी यूनियनें, जिन्होंने निवेशक परस्त नीतियों को लागू करने और मज़दूरों के संघर्षों को दबाने के लिए दशकों तक मिलिभगत की, अब घड़ियालू आंसू बहा रहे हैं, जबकि एन्नोर में मज़दूरों की मौतों के लिए ज़िम्मेदार पूंजीवादी व्यवस्था को बचा रहे हैं।
स्तालिनवादी ट्रेड यूनियनें, भारतीय शासक वर्ग के लिए शॉक एब्ज़ॉर्बर का काम करती हैं, मज़दूर वर्ग की सामाजिक शक्ति को भटकाती, दबाती और खंडित करती हैं। उन्होंने मज़दूर वर्ग के एक स्वतंत्र जवाबी हमले के विकास को व्यवस्थित रूप से रोका है, जबकि उन लेबर मैनेजमेंट कमेटियों और समझौता वार्ता काउंसिलों में अपनी मौजूदगी बनाए रखी है, जो छंटनी और ठेका मज़दूरी को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर मुहर लगाती हैं।
उन्होंने उन राज्यों में 'औद्योगिक शांति' बनाए रखने की अपनी इच्छा की घोषणा की है, जहां उन्होंने सरकारें बनाई हैं और मौजूदा समय में तमिलनाडु में उन्होंने मज़दूर विरोधी डीएमके सरकार को 'प्रगतिशीलता' का जामा पहनाया हुआ है।
इस प्रतिक्रियावादी माहौल में और इज़ाफ़ा करते हुए, नाम तमिलर कच्ची (एनटीके, वी तमिल्स पार्टी) जैसे तमिल राष्ट्रवादी संगठन, व्यापक बेरोज़गारी का निंदनीय रूप से फ़ायदा उठाकर, तमिलनाडु के मज़दूरों को भारत के अन्य हिस्सों से आए प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए, प्रवासी-विरोधी उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं। एनटीके नेता सीमन ने तमिलनाडु में उत्तर भारतीय मज़दूरों के लिए बार-बार 'परमिट' की मांग की है और आरोप लगाया है कि वे अपराध और रोज़गार के अवसरों में नुकसान के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस तरह की ज़हरीली बयानबाज़ी मज़दूर वर्ग को जातीय आधार पर बांटती है और सामाजिक आक्रोश से उन कॉरपोरेट और राज्य के अभिजात वर्ग को बचाती है, जो सभी मज़दूरों की दयनीय हालात के लिए असल ज़िम्मेदार हैं।
वास्तव में, प्रवासी मज़दूरों का आगमन पूंजीवादी शोषण और असमान क्षेत्रीय विकास का कारण नहीं बल्कि परिणाम है- ये स्थितियां उन्हीं निवेशक-परस्त सरकारों द्वारा क़ायम रखी गई हैं, जिनका समर्थन ये सभी दल करते हैं।
असम, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से हर साल हज़ारों युवक-युवतियां तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई और दक्षिण भारत के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते हैं। वे अपने गृह राज्यों में कृषि संकट, भारी कर्ज और छोटे पैमाने की खेती के घाटे से जूझ रहे हैं- जो केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दशकों से लागू की गई बाज़ार-परस्त नीतियों का सीधा नतीजा है।
असम से आने वाले वर्कर इस घरेलू विस्थापन की लहर में लगातार शामिल होते रहे हैं, जिसका मुख्य कारण रहा है सत्ताधारी वर्ग द्वारा पैदा की गई वही दयनीय परिस्थिति। चाय बागान की अर्थव्यवस्था ने कभी असम के ग्रामीण मज़दूरों को काफ़ी हद तक अपने में समेटे रखा था अब वो निजीकरण, स्थिर मज़दूरी और भयानक लापरवाही की भेंट चढ़ गई है, जिसने वर्करों को दक्षिण भारत और औद्योगिक रूप से विकसित अन्य इलाक़ों में बहुत ख़राब काम के हालात वाले निर्माण स्थलों और फ़ेक्ट्रियों में नौकरी करने को मज़बूर किया है। वहां उनका सामना भाषाई अकेलापन, भेदभाव और सामाजिक सुरक्षा की ग़ैरमौजूदगी से होता है। किसी भी अर्थपूर्ण संदर्भ में उनका विस्थापन कोई उनकी इच्छा पर निर्भर नहीं है, यह एक ऐसे सिस्टम में ज़िंदा बचे रहने की हताश कोशिश है जो कोई और विकल्प नहीं देता है।
एन्नोर में हुई मौतें कोई अकेली त्रासदी नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक हत्याओं के एक वैश्विक पैटर्न का हिस्सा हैं, जो इंसानी जीवन को कॉरपोरेट मुनाफ़े का ग़ुलाम बना देता है। इस तरह की औद्योगिक मौतों को रोकने के लिए पूंजीवादी पार्टियों, सरकारी तंत्र या स्तालिनवादी ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रवासी और स्थानीय, दोनों तरह के मज़दूरों के जीवन, नौकरियों और कामकाजी और जीवन स्थितियों की रक्षा के लिए हर कार्यस्थल पर स्वतंत्र रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियों का गठन आवश्यक है, जिनका नियंत्रण खुद मज़दूरों के हाथों में हो।
कॉरपोरेट मीडिया कभी-कभार किसी न किसी औद्योगिक दुर्घटना पर ध्यान देता है, क्योंकि इसमें मज़दूरों की भारी संख्या में मौतें होती हैं, दुर्घटना स्थल की प्रमुखता होती है, या किसी बड़ी आग या विस्फोट से उसका संबंध होता है। लेकिन तमिलनाडु और पूरे भारत में कारखाने, निर्माण स्थल, खदानें और विशेष आर्थिक क्षेत्र रोज़ाना जानलेवा और जीवन बदल देने वाली दुर्घटनाओं से ग्रस्त हैं। ज़्यादातर समय यह ख़बर कार्यस्थल के स्तर पर ही दबा दी जाती है, जहां प्रबंधन और सरकारी अधिकारी कथित लापरवाही और सुरक्षा उपायों की अनदेखी के लिए मज़दूरों पर ही दोष मढ़ देते हैं, भले ही मुनाफ़े के चक्कर में नियोक्ता उचित प्रशिक्षण और सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराने में नाकाम रहते हों और उत्पादन बढ़ाने के लिए मज़दूरों पर दबाव डालते हों।
डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस और इंटरनेशनल वर्कर्स अलायंस ऑफ़ रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियां (आईडब्ल्यूए-आरएफ़सी) मज़दूरों से अपील करती हैं कि वे हमें ऐसी सभी दुर्घटनाओं और उनके कारणों में छिपे असुरक्षित काम के हालात की रिपोर्ट उपलब्ध कराएं। सुरक्षित काम के हालात और उत्पादन और काम की जगहों पर मज़दूरों के नियंत्रण स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग के एक स्वतंत्र औद्योगिक व राजनीतिक आंदोलन के विकास हेतु संघर्ष करने के लिए ये सूचनाएं मिलती रहें। ऐसे आंदोलन को मज़दूरों की राजनीतिक ताक़त और सामाजिक-आर्थिक जीवन के समाजवादी पुनर्गठन के संघर्ष के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मज़दूरों का जीवन और आजीविका अब कॉरपोरेट मुनाफ़े की दया पर निर्भर न रहे।
