14 मार्च 2024 को अंग्रेजी में प्रकाशित India’s 1983 Nellie communal massacre in historical perspective लेख का हिंदी अनुवाद.
चालीस साल पहले 19 फ़रवरी 1983 को असम में नेल्ली की बस्ती और पास के 14 गांवों में निर्दोष बंगाली भाषी मुस्लिमों के ख़िलाफ़ बर्बर जनसंहार हुआ था. इस साम्प्रदायिक हिंसा में भारत की मौजूदा सत्तारूढ़ हिंदू बर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी की बहुत बड़ी भूमिका थी. बांग्लादेश से आए बेहद ग़रीब विस्थापित शरणार्थियों के ख़िलाफ़ 'अवैध विदेशियों' को निशाना बनाने वाले बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक भड़काऊ अभियान के कारण यह जनसंहार घटित हुआ था.
सामप्रदायिक हत्याओं की शुरुआत 2 फ़रवरी 1983 को हुई और यह अगले दो हफ़्ते तक चलता रहा, और 18 फ़रवरी को नेल्ली पहुंचने तक यह बहुत भीषण रूप धारण कर चुका था. नेल्ली जनसंहार के नाम से जाने जाने वाली इस साम्प्रदायिक हिंसा में, आधाकारिक अनुमान है कि 2,191 लोग मारे गए. अनाधिकारिक अनुमान है कि मारे जाने वालों की संख्या 10,000 के आस पास थी. इस भीषण कत्लेआम के कारण तीन लाख मुस्लिम, हिंदू और ईसाई किसान और ग्रामीण कामकाजी परिवार उसी राज्य में शरणार्थी बन गए थे. ये दुर्भाग्यशाली लोगों ने खस्ताहाल कैंपों में पनाह ली थी जहां खाने और पीने के पानी की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण उन्हें भारी कष्ट झेलना पड़ा.
दक्षिण एशिया का 1947 का साम्प्रदायिक विभाजन और नेल्ली जनसंहार
नेल्ली जनसंहार को, इस महाद्वीप के 1947 में एक नाममात्र के सेक्युलर इंडिया और 'इस्लामिक रिपब्लिक' ऑफ़ पाकिस्तान में विभाजन के संदर्भ में ही समझा जा सकता है. 20वीं सदी के पहले आधे हिस्से के दौरान दक्षिण एशिया साम्राज्य विरोधी आंदोलनों से आंदोलित था. लेकिन मज़दूर वर्ग और किसानों की आबादी के बढ़ते बग़ावती रुख के डर से 'महात्मा' गांधी और जवाहरलाल नेहरू की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूंजीवादी पार्टी ने अपने सेक्युलर जनवादी कार्यक्रम से विश्वासघात किया और भारत छोड़ कर जा रहे ब्रिटिश उपनिवेशवादी अधिपतियों से एक समझौता किया और दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग ने भी जल्द 'सत्ता हस्तानंतरण' और दो साम्प्रदायिक देशों के निर्माण के गठन का समझौता किया. भारत और पाकिस्तान के आधिकारिक रूप से क्रमशः 15 अगस्त और 14 अगस्त 1947 के जन्म लेने से पहले ही दसियों लाख लोगों को अपनी जड़ों से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा और मुस्लिम लीग, कांग्रेस, हिंदू महासभा और सिख अकाली दल के राजनेताओं द्वारा भड़काई गई बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा के कारण उन्हें पलायन करना पड़ा और उत्तर भारत से मुस्लिम पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिंदू और सिख भारत में विस्थापित हुए.
विभाजन का एक ऐतिहासिक अपराध जिसने आर्थिक और ऐतिहासिक तर्क को नकार दिया, कई जनजातीय-भाषाई ग्रुपों में विभाजन कर दिया और इसने एक ऐसे प्रतिक्रियावादी भूराजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ज्वार खड़ा किया जो आज भी दक्षिण एशिया के लोगों को परमाण्विक जनसंहार के ख़तरे के साये में रखे हुए है. इस विभाजन ने साम्राज्यवाद को जो दुनिया की एक चौथाई आबादी का निवास पर अपने दबदबे को बरकरार रखने के साधन के रूप में काम किया.
अपने जन्म के समय पाकिस्तान एक कमज़ोर और अस्थिर राजनीतिक इकाई था. देश के आधे पश्चिमी हिस्से के पंजाबी प्रभुत्व वाले अभिजात वर्ग ने राजनीतिक और आर्थिक सत्ता पर अधिकार जमा लिया जो कि अधिक ग़रीब बंगाली आबादी वाले पूर्वी पाकिस्तान के लिए विनाशकारी साबित हुआ. यह 2200 किलोमीटर का हिस्सा भारतीय इलाक़े से अलग कर पाकिस्तान में मिलाया गया था. पाकिस्तान में राजनीतिक संस्थानों में सुधार लाने के एक चौथाई सदी की असफल कोशिशों और लगातार बढ़ते बर्बर दमन को देखते हुए पूर्वी पाकिस्तान की जनता ने विद्रोह कर दिया और 1971 के खूनी गृह युद्ध के बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ.
आज़ादी के बाद भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के हिंदू महासभा में बीजेपी के राजनीतिक पूर्वजों, जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ (आरएसएस) की मांग को कांग्रेस पार्टी ने ख़ारिज कर दिया. लेकिन जिस तरह उन्होंने भारत के विभाजन को लागू करने में हिंदुत्व के समर्थकों के साथ मिलीभगत की थी, कांग्रेस पार्टी ने हिंदू दक्षिणपंथ को आत्मसात करने और उनके साथ गठजोड़ करना जारी रखा. 1947 के बाद के दशकों में सामाजिक असंतोष बढ़ा क्योंकि जनता जिन ज्वलंत सामाजिक और जनवादी समस्याओं का सामना कर रही थी उनमें से किसी का भी स्वतंत्र पूंजीवादी शासन समाधान नहीं कर पाया. इसलिए कांग्रेस और इसके पूंजीवादी मालिकों ने मज़दूर वर्ग की ओर से पेश की गई चुनौतियों को पटरी से उतारने के लिए साम्प्रदायिक रूप से 'बांटो और राज' करो की नीति अपनाई.
इस संदर्भ में और ऐसी स्थिति में जहां स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों ने मज़दूर वर्ग को पूंजीवादी सत्ता तंत्र के अधीन बना दिया था, हिंदू बर्चस्ववादी दक्षिणपंथ 1980 से ही बीजेपी के अंदर लामबंद होना शुरू हो गया और जातीय-अंधराष्ट्रवादी और विशिष्टतावादी राजनीति के विभिन्न रूपों की तरह आगे बढ़ा.
एक भयानक अपराध
नेल्ली जनसंहार, विभाजन के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा जनसंहार था. यह असमिया जातीय अंधराष्ट्रवादियों, बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं और आरएसएस द्वारा भड़काया गया था. आरएसएस हिंदू बर्चस्ववादी 'सांस्कृतिक पुनरुत्थान' का संगठन है जिसने बीजेपी को जन्म दिया और अभी भी उसके अगुवा काडरों की सप्लाई करता है. भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री और हिंदू लौहपुरुष नरेंद्र आरएसएस के आजीवन सदस्य हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते 2002 में राज्य में मुसलमान विरोधी जनसंहार को भड़काने में अपनी भूमिका के चलते वो पहली बार राष्ट्रीय चर्चा का विषय बने.
नेल्ली जनसंहार के दौरान स्थानीय हिंदू असमिया ग्रामीण देसी बंदूकों और धारदार हथियारों से लैस होकर बंगाली मुस्लिम गांवों को घेर लिया और उन पर हमला बोल कर उस हर किसी को मार दिया जो उनके सामने आया. इसके बावजूद कि स्थानीय सरकार और पुलिस प्रशासन को इसकी पूर्व चेतावनी मिल चुकी थी कि ऐसा हो सकता है, लेकिन उन्होंने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
इस जनसंहार में तिवा आदिवासी लोग भी शामिल थे, जो बहुत ग़रीबी में जीवन जी रहे थे और जो कर्ज़ या शहरीकरण के लिए सरकार द्वारा अपनी ज़मीनें बेचने को मज़बूर करने की वजह से अपनी अधिकांश पारम्परिक ज़मीनों से बेदखल हो चुके थे. उन्हें नेल्ली के लोगों और आसपास के गांवों के ख़िलाफ़ ये अफ़वाह फैलाकर भड़काया गया था कि बंगाली मुस्लिम पुरुषों ने चार नौजवान तिवा महिलाओं का अपहरण कर उनका बलात्कार किया था. दूसरे आदिवासी समुदाय कोच, जिसके अधिकांश लोग हिंदू में धर्मांतरित हो चुके थे, के सदस्यों ने भी इस जनसंहार में हिस्सा लिया. दशकों तक आरएसएस और पूरा हिंदू दक्षिणपंथ ब्रिगेड ने अपने साम्प्रदायिक एजेंडा के तहत आदिवासी लोगों को विभिन्न हिंदू जातीय समूहों में शामिल करने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है.
नेल्ली जनसंहार में जो लोग मारे गए, उनमें वे लोग भी थे जो असम में पीढ़ियों से रह रहे थे. इसके अलावा, साम्प्रदायिक हिंसा इस कदर फैली थी कि कुछ ग़ैर मुस्लिम बंगालियों का भी कत्लेआम कर दिया गया.
यहां ये विशेष तौर पर बताने की ज़रूरत है कि असम राज्य में बंगाली लंबे समय से रहते आए थे और बांग्लादेश के लोगों की वही भाषा और संस्कृति है जो पश्चिम बंगाल के लोगों की है. पश्चिम बंगाल असम का पश्चिमी पड़ोसी राज्य है और भारत का चौथा सबसे घनी आबादी वाला प्रदेश है.
'विदेशी विरोधी' प्रदर्शन में जातीय अंधराष्ट्रीय विशिष्टता और साम्प्रदायिकता
असम लंबे समय से अलग अलग भाषाएं बोलने वाले कई जातीय समूहों का निवास रहा है. 1826 में, पहले एंग्लो-बर्मा युद्ध में बर्मा (म्यांमार) की हार के बाद अंग्रेज़ों ने असम को बर्मा से अलग कर दिया था.
उस समय इसे बंगाल प्रेसिडेंसी में शामिल कर दिया गया था, जिसे बाद में प्रांत का नाम दे दिया गया. समय के साथ ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने वहां पढ़े लिखे बंगालियों, ख़ासतौर पर हिंदुओं के साथ सरकारी प्रशासन की स्थापान की. असमिया अभिजात वर्ग इन प्रशासनिक नौकरियों की चाहत रखता था.
1835 की शुरुआत में ब्रिटिश बागान मालिकों द्वारा अपर असम में बड़े पैमाने पर चाय बागान लगाए जाने के बाद मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्राविंस- आज का उत्तर प्रदेश) और मद्रास प्रेसिडेंसी के घनी आबादी वाले इलाक़ों से गिरमिटिया मज़दूरों को इन चाय बागानों में एक तरह से ग़ुलामों की तरह काम करने के लिए आसाम आने को प्रोत्साहित किया गया.
19वीं सदी के अंत में जब अपर असम में कोयला और पेट्रोलियम भंडारों की खोज हुई तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों से मज़दूरों को असम आने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके लिए उन्हें ट्रेन का किराया दिया गया.
परिणामस्वरूप, असम विविध जातीय और सांस्कृतिक समूहों का गुलदस्ता बन गया. उस समय तक मैदानी इलाक़ों और जंगल में रहने वाले मूल निवासियों और चाय बागानों की ओर से रखे गए प्रवासी गिरमिटिया मज़दूरों के बीच कोई गंभीर वैमनस्य नहीं था. असल में इनमें से अधिकांश ने असमिया भाषा और संस्कृति को अपना लिया.
20वीं शताब्दी की शुरुआत में 'असमिया पहचान' का आंदोलन शुरू होता है. क्योंकि सरकारी प्रशासन में पढ़े लिखे बंगाली हिंदुओं का दबदबा था, इसलिए आर्थिक अवसरों की कमी और राजनीतिक रूप से हाशिये पर होने के लिए बंगालियों को दोषी ठहराया जाने लगा.
इस समय और विभाजन के बाद भी, असमिया अभिजात वर्ग को बंगाली हिंदू उच्च वर्ग के अपने प्रतिद्वंद्वियों के ख़िलाफ़ बंगाली मुस्लिम किसानों का समर्थन जुटाने में कुछ कामयाबी मिली थी.
राज्य के आर्थिक पिछड़ेपन, औपनिवेशिक शासन की विरासत और भारत के देर से पूंजीवादी विकास के कारण, आज ही की तरह 1970 के दशक में भी, असमिया मध्य वर्ग के लिए आर्थिक अवसरों की चौतरफा कमी थी. प्रकृतिक संसाधनों में धनी होने के बावजूद, भारत सरकार ने यहां मुश्किल से ही कोई टिकाऊ औद्योगिक विकास की शुरुआत की, इसीलिए यह प्रदेश ग़रीबी और अभाव में फंसा रहा. आज के असम में शहरी क्षेत्रों में केवल 44 लाख आबादी रहती है जबकि 2.7 करोड़ आबादी ग्रामीण है.
बीजेपी और 'असम आंदोलन'
पाकिस्तानी सेना के आतंक और उसके बाद बांग्लादेश में हुए उथलपुथल के कारण बड़े पैमाने पर बंगाली शरणार्थी यहां आए. एएएसयू और एएजीएसपी की अगुवाई में शुरू हुए 'असम आंदोलन' ने अपने विरोध प्रदर्शनों को मुख्य रूप से उन्हें ही निशाना बनाया. उन्होंने मांग की कि इन 'अवैध विदेशियों' को वोट देने से प्रतिबंधित किया जाए और उन्हें वापस बांग्लादेश भेजा जाए.
हालांकि बांग्लादेश की आबादी मुस्लिम बहुल है, लेकिन शरणार्थियों में भारी संख्या हिंदू रेफ़्यूजी की है जो पाकिस्तानी सेना के अत्याचार से भागकर भारत आ गए थे. यही वजह है कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने ख़ास तौर पर उन्हें ही निशाना बनाया ताकि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का मुकाबला करने के लिए मुस्लिम साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया को हवा दिया जा सके और जमात-ए-इस्लामी समेत इस्लामी कट्टरपंथी ताक़तों को उसके ख़िलाफ़ लामबंद किया जा सके.
'असम आंदोलन' का विरोध प्रदर्शन 1983 की शुरुआत में चरम पर पहुंच गया जब बड़े पैमाने पर सड़क और रेल का चक्का जाम कर दिया गया और खाने की किल्लत होने लगी. ये प्रदर्शन इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी की ओर से राज्य में 14 फ़रवरी से 21 फ़रवरी 1983 के बीच विधानसभा चुनाव कराए जाने के दृढ़संकल्प के विरोध में हो रहे थे.
'विदेशियों' के ख़िलाफ़ एएसयू और एएजीएसपी द्वारा पहले से बनाए गए ज़हरीले माहौल में आरएसएस और बीजेपी ने खुद भी ख़ासतौर पर मुस्लिम विरोधी प्रदर्शन शुरू कर दिए. आरएसएस ने एएसयू में घुसपैठ कर ली और इसकी वजह से उस संगठन में फूट पड़ गई.
हिंदू दक्षिणपंथ का योगदान, जातीय अंधराष्ट्रवादी असमिया आंदोलन को मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक चरित्र देना था.
उस समय सरकार की एक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया था कि 'आरएसएस तत्वों का जुड़ाव और कई जगहों पर प्रदर्शन से संकेत मिलता है कि चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के ठीक बाद कुछ संवेदनशील इलाक़ों में साम्प्रदायिक अशांति की बड़ी आशंका है.'
उस समय बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, जो बाद में 1996 और फिर 1998 से 2004 के बीच भारत के प्रधानमंत्री बने, उन्होंने नेल्ली जनसंहार से ठीक पहले एक चुनावी रैली में कत्लेआम को उकसाने वाला भाषण दिया. 1990 और 2000 के दशक में भारतीय कार्पोरेट मीडिया द्वारा 'मध्यमार्गी' और 'उदारवादी' के रूप में प्रचारित किए जाने वाले इस धुर प्रतिक्रियावादी ने अपने भाषण में कहा थाः
'विदेशी लोग यहाँ आ गए हैं, और सरकार कुछ नहीं करती. क्या होता अगर वे पंजाब में आ जाते तो लोग उनके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक देते.'
बाद में कई पत्रकारों की जांच पड़ताल में खुलासा हुआ कि नेल्ली जनसंहार में बीजेपी, आरएसएस और एएसयू की मिलीभगत ने मुख्य भूमिका निभाई थी.
यही वो समय है जिसके बाद भारतीय पूंजीपति वर्ग में मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता के बीच अंकुरित होने लगे थे.
भारत में हुए कई साम्प्रदायिक हिंसा की तरह ही, जिसमें सबसे कुख्यात 1984 का सिख विरोधी दंगा, 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाना और 2002 का गुजरात जनसंहार शामिल है, नेल्ली जनसंहार को भड़काने और साज़िश रचने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार लोगों में से किसी को भी उनके अपराधों के लिए कभी भी दोषी नहीं ठहराया गया है.
इसके बाद, 1970 के दशक के मध्य तक भारतीय राजनीति में दबदबा रखने वाली कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर और असम में राजनीतिक पराभव शुरू हुआ. मज़दूर वर्ग, किसान और छात्रों का विरोध फूट पड़ने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 से 1977 के बीच तानाशाही 'इमरजेंसी क़ानून' का सहारा लिया, कांग्रेस के लिए यह टर्निंग प्वाइंट था.
1985 का असम समझौता
कांग्रेस ने 1983 का असम चुनाव जीत लिया लेकिन चुनाव का बहिष्कार करने वाले एएसयू और एएजीएसपी राजनीतिक रूप से मजबूत होकर उभरे.
इसके बाद अक्टूबर 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नए प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय सरकार ने असम सरकार, एएसयू और एएजीएसपी के साथ एक प्रतिक्रियावादी 'असम समझौता' किया.
इस समझौते ने एएसयू और एएजीएसपी के भड़काऊ प्रचार अभियान को और हवा दे दी. इस समझौते के तहत 24 मार्च 1971 के बाद भारत में प्रवेश करने वाले शरणार्थियों और प्रवासियों को चिह्नित करने और उन्हें वापस भेजने पर भारत सरकार ने सहमति दे दी. यह तारीख़ बांग्लादेश के आज़ाद घोषित करने से दो दिन पहले की थी. इस समझौते में ये भी कहा गया था कि 1 जनवरी 1966 से पहले आए और 24 मार्च 1971 (अर्द्धरात्रि तक) आने वाले सभी लोगों के नाम अगले दस साल (यानी 1995) तक मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा लेकिन उन्हें नागरिकता का अधिकार होगा.
असम समझौते के तहत, अंतरराष्ट्रीय सीमा को 'घुसपैठ' के ख़िलाफ़ सुरक्षित करने के लिए कई जगहों पर 'दीवारें खड़ी करने, कंटीले तारों की बाड़ लगाने और अन्य बाधाएं बनाने' पर भारत सरकार सहमत हो गई.
समझौता लागू होने के चार महीने बाद दिसम्बर 1985 में राज्य में नए चुनाव कराए गए. असम आंदोलन के नेताओं द्वारा गठित असम गण परिषद सत्ता में आई और एएसयू के पूर्व अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बने.
स्टालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया, मार्क्सवादी (सीपीएम) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) ने इस अंधराष्ट्रवादी और प्रतिक्रियावादी असम समझौते का पूरे दल से समर्थन किया.
असम समझौते के बाद 2003 में वाजपेयी की भाजपा सरकार द्वारा कुटिल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्ट्री (एनआरसी) पेश की गई थी. इसके तहत, भारत में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी नागरिकता 'साबित' करनी होगी, अन्यथा उन्हें 'अवैध अप्रवासी' माना जाएगा. 2013-14 में, असम की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार इस तरह की रजिस्ट्री शुरू करने वाली भारत की पहली और एकमात्र सरकार बन गई, लेकिन भाजपा ने 'अवैध' मुस्लिम आप्रवासियों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन के हिस्से के तौर पर इसे पूरे देश में लागू करने की बार-बार कसम खाई है.
पिछले चार सालों में, अब इसे नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) से जोड़ दिया गया है, दिसम्बर 2019 में स्पष्ट रूप से इस मुस्लिम विरोधी क़ानून को मोदी सरकार ने पास किया, जिसमें पहली बार धर्म को भारतीय नागरिकता देने का आधार बनाया गया. सीएए के तहत मुस्लिमों को छोड़कर उन सभी प्रवासियों को नागरिकता दी जाएगी जो 2015 से पहले अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भागकर आए हों.
इस बीच असम में, राज्य की वर्तमान भाजपा सरकार नई दिल्ली के साथ मिलकर एनआरसी को पूरी तरह से लागू करने की ओर आगे बढ़ी है. इसके परिणामस्वरूप लगभग 20 लाख लोग राज्यविहीन हो गए हैं. ये लाखों लोग असम या यहां तक कि ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत में पैदा होने के बावजूद अपनी नागरिकता 'साबित' नहीं कर सके. उनमें से अधिकांश बंगाली भाषी मुसलमान हैं और आजीविका कमाने वाले गरीब खेतिहर मज़दूर हैं. मोदी सरकार ने इन असहाय पीड़ितों को कई नवनिर्मित नज़रबंदी कैंपों में फेंक दिया है. इन शिविरों में हिरासत में लिए गए 100 से अधिक लोगों ने कथित तौर पर या तो स्वास्थ्य देखभाल की कमी के चलते या आत्महत्या के कारण अपनी जान गंवा दी.
हालांकि असमिया जातीय अंधराष्ट्रवादियों की ओर से ये शिकायत लगातार बनी रही कि वापस भेजने के लिए पर्याप्त संख्या में बंगाली भाषी लोगों को निशाना नहीं बनाया गया.
पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में दस महीनों से जारी खूनखराबे में 200 से अधिक निर्दोष लोग मारे गए हैं और दसियों हज़ार लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा है, इसी तरह नेल्ली जनसंहार और असम में चल रहा जातीय-साम्प्रदायिक विभाजन इस बात का प्रमाण है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग का चरित्र प्रतिक्रियावादी है, जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की 'फूट डालो राज करो' की नीति को लागू किया और इसे आगे संस्थागत बना दिया.
यह भारत को एक हिंदू वर्चस्ववादी राज्य में बदलने की भाजपा के अभियान की पूर्ण अभिव्यक्ति है, जिसे सार्वजनिक रूप से कॉर्पोरेट भारत का वरदहस्त हासिल है, और जब बीते जनवरी में ढहाई गई बाबरी मस्जिद की जगह मोदी ने एक हिंदू राष्ट्रवादी मंदिर का उद्घाटन किया तो सभी 'सेक्युलर विपक्षी' पार्टियों ने इसे कायरतापूर्वक स्वीकार कर लिया.
भारत का मजदूर वर्ग दक्षिण एशिया के सभी मेहनतकशों का एक एकीकृत आंदोलन विकसित करके ही अपने बुनियादी लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकारों को सुरक्षित कर सकता है. शासक वर्ग द्वारा उकसाए गए सभी राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक, जातीय-भाषाई और जातिगत विभाजनों के विरोध में, इस तरह के आंदोलन का रणनीतिक लक्ष्य पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना और दक्षिण एशिया के संयुक्त समाजवादी राज्यों की स्थापना करना होगा. इसे साम्राज्यवाद और प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र-राज्यों की पुरानी व्यवस्था, जिसमें पूंजीवाद ऐतिहासिक रूप से जड़ें जमा चुका है, को नष्ट करने के लक्ष्य से अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग का साथ लेना होगा.